Book Title: Triloksar
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 811
________________ बापा १०१७-२०१८ अथ प्रशस्तिः ७६७ तिहुबणजिणिदगेहे अकिट्टिमे किट्टिमे विकालभवे । वणकुमरविहंगामरणरखेचरवंदिए वंदे ॥ १०१७ ॥ त्रिभुवनजिनेन्द्रगेहान् अकृत्रिमान कृषिमान त्रिकालभवान् । वानकुमारविध तांयामरनरखेचरवावतान् बन्दै ॥ १.१७॥ तिह। प्रकृत्रिमान् कृषिमान् त्रिकालभवान् पन्तरभवनवासिज्योतिष्ककल्पवासिनरखेचरपन्दितान त्रिभुवनजिनेन्द्रगेहान् बच्चे ॥ १०१७ ॥ अब इस शास्त्र को पूर्ण करते हुए आचार्य अन्तिम मंगल हेतु जिलोकयोचर अकृत्रिम कृत्रिम समी जिनमन्दिरों को दादना करने के लिए कहते हैं गाथार्थ :-व्यस्तर, भवनवासी, ज्योतिष्क, कल्पवासी, मनुष्य एवं विद्याधरों से वन्दित त्रिकालसम्बन्धी तीन लोक स्थित कृत्रिम अकृत्रिम जिनमन्दिरों की वन्दना करता हूँ ।। १०.१७ ॥ विशेषार्थ :--अतीत, अनागत और वर्तमान सम्बन्धी, कर्व, मध्य और पाताल लोक में ध्यातर, भवनवासी, ज्योतिष्क, कल्पवासी, मनुष्य और विद्यापरों द्वारा वन्दित सम्पूर्ण अकृत्रिम कृत्रिम चैत्यालयों की मैं वन्दना करता हूँ। अन्त्यमंगलानन्तरं ग्रन्थकारः स्वकीपौनत्य परिहरति इदि थेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणमयमंदियच्छेण | रहयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥ १.१८॥ इति नेमिचन्द्रमुनिता अल्प तेनाभयनदिवसेन । रचितस्त्रिलोकसारः क्षमन्तु तं बहुश्रुताचार्याः ॥ ११ ॥ इति । इत्येवं प्रकारेणापश्रुतेनामयनन्दिसिद्धान्तक्रिवरसेन धोनेमिचन्न सिद्धान्त चरण' गणिना मिलोकशाराख्यो ग्रन्थो रचितः संबहुमतावाः क्षमन्तु ॥ १०१८ ॥ अन्तिम मंगल के बाद ग्रंथकार अपने योद्धस्य का परिहार करते हैं गामार्य :- अभयनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के वत्स { शिष्य ), अल्प श्रुतज्ञान के पारी प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा यह पिलोकसार ग्रंथ रचा गया है। उन्हें बहुश्रुतधारक आचार्य क्षमा करें॥ १.१८॥ विशेषाप:-अभय नन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के अल्पश्च तशानधारी शिष्य आचार्य श्रीनेमिचन्द्रसिद्धास्तचक्रवर्ती द्वारा प्रस्तुत बिलोकसार ग्रंथ लिखा गया है । इसमें यदि किसी प्रकार की भूल हुई हो तो बहुश्रुतधारी आचार्य क्षमा प्रदान करें। १ पति {40)।

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