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त्रिलोकसार
बाथा।६. मनुष्य अस्यन्त सतोप को प्राप्त होते हैं, तब साक्षात समस्त अर्थ एवं तत्त्वों को एक साथ और निरन्तर जानने वाले सिद्ध परमेष्ठी क्या संतोष को प्राप्त नहीं होंगे? अवश्य हो होंगे।
चक्किकुरुफणिसुरेदेसहमिदे में सुहं तिकालभवं । तचो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि ।। ५६. ॥ चकिकुरुफरिणसुरेन्द्रेषु अहमिन्द्रे यत्सुखं त्रिकालभव ।
तत अनंतगुणितं सिद्धानां क्षणसुखं भवति || ५६० ॥ चपिक । वरिषु कुरुषु फणीन्द्रेषु सुरेन्द्ररहमिन्भेषु च पूर्वपूर्वस्मादुत्तरोत्तरेषामनन्तपुरिणत यत्सुखं त्रिकाल भवं ततः सर्वेन्या सिद्धाना क्षणोरय सुखमनन्तगुरिंगत भवति ॥ ५६० ।।
गावार्थ:-चक्रवर्ती, भोगभूमि, धरणेन्द्र, देवेन्द्र और अहमिन्द्रों का सुन्न क्रमशः एक दूसरे मे अनंत गुणा अनन्त गुणा है। इन सबके त्रिकालवी सुखों से सिद्धों का एक क्षण का भी सुख अनंतगुणा है ॥ ५६० ॥
विशेषाय:-संसार में चक्रवर्ती के सुख से भीगभूमि स्थित जीवों का सुख अनन्तगुणा है। इनसे घरएंद्र का सुख अनंत गुणा है। धरणेन्द्र से देवेन्द्र का सुख अनन्तगुणा है, और देवेन्द्र से अहमिन्द्रों का सुख अनंतगुणा है । इन सब के त्रिकालवर्ती सुख से भी सिद्धों का एक क्षण का सुख अनन्तगुणा है । अर्थात् उनके सुख की तुलना नहीं है।
- उपयुक्त उपदेश मात्र कथन स्वरूप है, कारण कि सिद्ध परमेष्ठी का सुख अतीन्द्रिय, स्वाधीन और निराकुल ( अव्याबाष ) है, तथा संसारी जीवों का सुख इन्द्रिय जनित, पराधीन और आकुलतामय है, अतः तीनों लोकों में कोई भी उपमा ऐसी नहीं है जिसके सदृश सिद्ध जीवों का सुख कहा जा सके । उनका सुख वचनागोचर है। जिस प्रकार पित्त बिकार से युक्त जिह्वा मधुर स्वाद लेने में असमर्थ होती है उसी प्रकार विकारी छद्मस्थ आत्माएं सिद्ध भगवन्त के मुख का रसास्वादन लेने और कहने में असमर्थ हैं।
इति श्रीनेमिचन्द्राचार्यविरचिते त्रिलोकमारे वैमानिकलोकाधिकारः ।। ५ ॥ इसप्रकार श्री नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार में वैमानिकलोकाधिकार
समाप्त हुभा ॥