________________
पाया:१४ मरतियरलोकाधिकार
६३६ Re-1.
हो जाते हैं। तृतीय काल का ३ वधं ८ मास १ पक्ष अवशेष था तब प्रथम लीधीकर वृषभदेव भगवान् मोक्ष गए और चतुर्थ काल का भी ३ वर्ष, ८ मास १ पक्ष अवशेष या तब वीर प्रभु मोक्ष गए । पूर्व पूर्व तीर्थङ्कर के अन्तर में उत्तर उसर तीर्थङ्कर की आयु संयुक्त ही जानना चाहिए। जैसे:-प्रथम अन्तराल काल वृषभदेव का तोयंकाल है, इसमें अजितनाथ भगवान् की आयु मिली हुई है । अर्थात् वृपभदेव के मुक्ति काल से अजित देव के मुक्ति काल पर्यन्त वृषभदेव का ही तीर्थकाल रहा है। अजित नाथ के मुक्तिकाल से सम्भवनाय के मुक्ति काल पर्यग्व अजितनाथ का तीर्थकाल रहा । ऐसा ही अन्यत्र लगा लेना चाहिए। वीरनाथ के मुक्तिकाल के बाद चतुर्थ काल के अवशेष रहे ३ वर्ष ८ मास १ पक्ष को पावं जिनेश के अन्तर काल २४६ वर्ष, ३ मास, १ पक्ष में मिला देने पर २५० वर्ष होते हैं और सम्पूर्ण अन्तर कालों को मिला लेने पर एक कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण होता है। इदानी जिनषोच्छित्तिकाले दर्शयति
पल्लतुरियादि चय पयंतचउत्घृण पादपरफालं । न हि सद्धम्मो सुविधीदु संति अंने सगंतरए ।।८१४।।
पल्लतुर्यादिः चया पत्यमन्तं चतुर्थोनं पादपरकाल।
.. न हि सद्धर्मः सुविधितः शान्त्यन्ते सप्तान्तरे ।। ८१४ ।। पहा । पत्य चतुषांश मादिः परतावानेव चय। एकपल्यमन्तं ततः पर पल्पचतुर्थाशोन यावत्पस्यपाहावसानकालं प. ।।३।३।। एतेषु सुविधितः पुष्पवताबारम्प शान्तिमायावसानेषु सप्तध्वन्तरेषु वक्त बोतृवरिष्णूनामभावात' सबो नास्ति ॥ १४ ॥
अब जिनधर्म का उच्छेद काल दर्शाते हैं :
गाथा:-सुविधिनाथ से शान्तिनाथ पर्यन्त के सास अन्तरालों में से प्रथम अन्तराल में पल्य के चौथाई भाग (पल्य ) प्रमाण, इसके आगे पल्य पर्यन्त इसी : पल्य को चय वृद्धि के क्रम से और वहाँ से ३ पल्य पर्यन्त इतने ही चय की हानि के कम से धर्म विच्छेद रहा है ॥ १४ ॥
विशेषा-प्रथम मन्तराल में पल्य के चतुर्थाश अर्थात पत्य भाग तक धर्म विच्छेद रहा। इसके आगे पल्य पर्यन्त इसी चय बुद्धि से बढ़ते हुए और पल्य को हानि क्रम से पल्प पर्यन्त काल तक अर्थात् है पत्य पर्यन्त काल तक सातों अन्तरालों में वक्ता, प्रोता और धर्माचरण करने वालों का अभाव होने से सद्धर्म अर्थात् जैनधर्म का विच्छेद रहा है।
१ बक्त मोनृणामभावान (प.)।