Book Title: Triloksar
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 724
________________ १८. त्रिलोकसार माया : १४६ प्रासाद है। उस प्रासाद के ऊपर गगनतल में बारह हमार योजन सम्बा और लम्बाई के अचं भाग प्रमाण चौड़ा विजय नाम का नगर है। अवशेष तीन द्वारों पर भी ऐसे ही प्रासाद एवं वैजयस्ताविक नाम के नगर हैं। उन चारों नगरों में साधिक पल्य प्रमाण आयु वाले व्यन्तर देव रहते हैं। जम्बूद्वीप को जगती के मूल भाग में नदी निकलने के बारह द्वार हैं उन प्राकारों के अभ्यन्तर ( भीतर बाले) भाग में वेदिका सहित अर्धयोजन व्यास वाले बन हैं। चारों द्वारों के व्यास से होन सुक्ष्म परिधि को चार से भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो वही विजयादि द्वारों का परस्पर में अन्तर है।। ८५, ८६४, ६१५|| विशेषार्ग:-तोरणद्वार से संयुक्त विजय द्वार के ऊपर दो योजन चौड़ा और चार योजन ऊंचा प्रासाद है जिसके ऊपर आकाश तल में १२.०० योजन लम्बा और ५००० योजन चौड़ा विजय नाम का नगर है। अवयोष तीन द्वारों के ऊपर भी ऐसे ही प्रासाद एवं वैजयन्तादि नगर बसे हुए हैं। पुन विजयादि चारों नगदों में विजयादिक नाम वाले ही पन्तर देव रहते हैं जिनकी आय साधिक एक पल्प प्रमाण है । जम्बूद्वीप को वेदी के मूलभाग में सीता-सीतोदा को छोड़कर अवशेष गङ्गादि १२ महानदियों के निकलने के १२ द्वार बने हुए हैं। सीता-सीतोदा नदी जगती के पूर्व-पश्चिम द्वारों से ही समुद्र में प्रवेश करता है अतः इनकामगभदाय अलग से नहीं हैं। उन प्राकारों के भीतर की ओर पृथ्वी के ऊपर वेदिका माहित अर्ध योजन चौड़े वन हैं। प्राकार के चारों द्वारों का व्यास सोलह योजन है, इसे जम्बूद्वीप की सूक्ष्मपरिधि ३१६२२८ योजनों में से घटा देने पर ३१६२१२ योजन अवशेष रहे । मुख्य द्वार चार ई अतः ३१५२१२ को चाय से भाजित करने पर ( २२).५३ योजन विजयादि एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर प्राप्त होता है । इस प्रकार द्वीप मौर समुद्रों के मध्य में स्थित प्राकारों सहित जम्बूद्वीप का वर्णन पूर्ण हा । अथ लवणार्गवाभ्यन्तरवर्तिनां पातालानामवस्थान तत्संख्यां तत्परिमाणं चाह लवणे दिसवि दिसंतरदिसासु चउ चउ सहस्स पायाला । मज्भुदयं तलवदणं लक्खं दम तु दममममं ॥ ८६६ ।। लवणे दिशाविदिशान्तरविश्वासु चत्वारि चत्वारि सहस्र पातालानि । . मध्योदया तलवदनं लक्ष दशमं तु दशमक्रमं ॥८९६ ॥ लपणे । लबरणसमुद्र विशु ४ विविक्षु ४ अन्तरविक्षु च = यथासंह घरपारि चत्वारि सहन पातालानि । तत्र दिग्गतपातालाना मध्यमेकलक्षव्यासं १० उदयश्च तथा १ ल. तलव्यासो प्रत्य १ लामाः १.०० यमयासक तथा विविगतपातामानो विग्गतपातालवशमांशकमो नातव्यः असरविणतपातालान - विक्षिातपातालवशासमोशातयः ।। ९६ ||

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