Book Title: Triloksar
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
Publisher: Ladmal Jain

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Page 799
________________ बापा: १५४ नरतियंग्लोकाधिकार मधुरानामनिनादाः मौक्तिकमणिनिमिताः सकिङ्किणिकाः । बहुविधघण्टाजाला रचिताः शोमन्ते तन्मध्ये ॥ १३ ।। ___ मरिण । मरिणकनकपुष्पशोभितदेवच्छन्वरूप पूर्वती बसस्या मध्ये रूप्यकाञ्चनमयानि शानिशघटसहस्राणि भवन्ति ।। ६६ मह । महावारस्य द्वयोः पारवयोश्चतुविशतिसहस्राणि २४००० धूपघटाः सन्ति । तलवारबाही पावटये असहमाणि ५०० मणिमाला: सन्ति ॥ १ ॥ सम्म । तासा मणिमालाना मध्ये पविशतिसहस्राणि २४... हेममाला: सन्ति । मुखमापे पुनाममयानि कलशानि तम्मयमालाच षोडषोडशसहस्राणि सन्ति १६.००। १६.०० तव पूना घोरशसहस्राणि १६००० धूपघटाश्च सन्ति ॥ १२ ॥ मह । सन्मणपस्मैव मध्ये पुनर्मपुरझणझणनिनादा मौक्तिकमरिणनिमिताः किङ्किणिकाः बहुविषघण्टाजाला भनेकर बनायुक्ताः शोभन्ते HEER . अब गर्म र बाह्य करार रहते हैं: गाचार्य :- मरिण और स्वर्ण के पुष्पों से सुशोभित देवच्छन्द के पूर्व में मागे जिनमन्दिर है, उसके मध्य में चांदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़े हैं। महाद्वार के दोनों पाश्वं भागों में चौबीस हजार धूपघट हैं तथा उस महाद्वार के दोनों बाह्य पाश्र्वभागों में पाठ हजार मणिमय मालाएं हैं। उन मणिमय मालाभों के मध्य में चौबीस हजार स्वर्णमय मालाए हैं तथा मुखमण्डप में स्वर्णमय सोलह हजार कलश, सोलह हजार मालाएं और सोलह हजार धूपष्ट है तथा उसी मुख मण्डप का मध्य भाग मोती और मणियों से बनी हुई मधुर मण सण शब्द करने वाली छोटी छोटो किकिणियों से युक्त नाना प्रकार के घन्टा जालों की रचना से शोभायमान है ॥ ३१-६६३ ॥ विशेषार्थ :- मरिश और स्वण के पुष्पों से सुशोभित जो देवच्छन्द है, उसके पूर्व में आगे जिन मन्दिर का मध्य चाँदी और स्वर्ण के बत्तीस हजार घड़ों से युक्त है। मन्दिर के महाद्वार के दोनों पाव भागों में २४.०० धूपघट हैं तथा उसो महाद्वार के दोनों वाह्य पाश्वं भागों में ८०. मणिमय मालाएं है और उन्हीं मणिमय मालाओं के मध्य में २४००० स्वरणंमय मालाएं हैं तथा उस महाद्वाय के प्रागे मुखमा है जिसमें स्वर्णमय १६००० फलश, १६००० मालाए' और १६०० धूप के घड़े हैं । उसी मुखमण्डप का मध्य भाग, मोती एवं मणियों से बनी हुई मधुर झन झन शब्द करने वाली छोटी छोटी किकिणियों से संयुक्त नाना प्रकार के घंटाओं के समूह की रचना से शोभायमान है। तदसतेः क्षुल्लकद्वारादिस्वरूपमाह वसईमज्जगदक्खिणउत्तरतणुदारगे सदद्ध तु । तप्पुढे मणिकरणमालडचउवीसगसहस्सं ।। ९९४ ।।

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