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१७.
त्रिलोकसार
पाथा:१६५-१६७
भय' प्रकीर्णकसंख्यानयनमाह
सेढीणं विच्चाले पृष्फपदण्णय इव डिया णिरया । होति पदण्णयणामा सेटिंदयहीणरासिसमा ॥१६६।।
श्रेणीमा अन्तराले पुष्पप्रकीर्णकानि इत्र स्थितानि निरपारिण ।
भवन्ति प्रकीर्णकनामानि श्रेणीन्द्रकहीन राशिसमानि ॥१६६५ मेवाणं । श्रेणीमा विद्याले अन्तराले पुष्पाणि प्रकीर्णकानीव स्वितानि निरवाणि भवन्ति। प्रकोएंकनामानि गीत २०१३ होनराशि ३०००००० समानानि २६६५५६७ । एवं पृथ्वी पृथ्षों प्ररयानेलण्यम् ॥१६॥
प्रकीर्णक बिलों की संख्या निकालने के लिए कहते हैं :
गाया:-धेणीबद्ध बिलों के बीचों बीच बिखरे गालों के माता यम तत्र किन बिल को प्रकीर्णक कहते हैं । विवक्षित पृथ्वी के सम्पूर्ण बिलों की संख्या में से इन्द्रक और अंगीबद्धों की संख्या घटा देने पर प्रकोणक बिलों की संख्या प्राप्त होता है ॥१६६।।
. विशेषा:-दिशा और विदिशामें स्थित श्रेणीबद्ध त्रिलो के अन्तराल में पंक्ति रहित पुष्पों के सहा पत्र तत्र बिखरे हुए बिलों को प्रकीराक बिल कहते हैं । प्रत्येक पृथ्वी के सम्पूर्ण बिलों की संख्या में से इन्द्रक और श्रेणीबद्धों की संख्या घटाने पर प्रकीर्णक बिलों को संख्या प्राप्त होती है । जैसेः -
सर्व विल-घेणीबद्ध +इन्द्र) = प्रकोणक ३००००००-( ४४२० + १३ ) -- २६६५५६७ प्रथम पृथ्वी के प्रकीकों की संख्या। २५.००.०–(२६८४+११) - २४९७४०५ द्वितीय पृथ्वी के प्रकीर्णकों की संख्या । १५०००००-(१४७६+ ९) १४९८५१५ तृतीय पृथ्वी के प्रकोणकों की संख्या । १०.0000-( ५००+ .) = ९९९२९३ चतुर्थ पृथ्वी के प्रकोणकों की संख्या । ३०००००- २६०+ ५) = २९९७३५ पञ्चम पृथ्वी के प्रकोण को की संख्या । ९९९९५-( ६०+ ३) - १९९३२ षष्ठ पृथ्वी के प्रकोपर्गको की संख्या।
५-( +) = • सप्तप पृथ्वी में प्रकीर्णको का अभाव है। अथ नरकबिलानां विस्तारप्रतिपादनाथमाह
पंचममागपमाणा णिरयाणं होति संखवित्धारा । सेसचउपंचभागा असंखवित्थारया णिरया ॥१६७।।