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त्रिलोकसार
गाथा: १३४-१३५
विशेषार्ष:-गाथा १३२ में कहे गए वायुरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल गणित विशेषज्ञों के द्वारा जगत्तर - २४ जाना गया है। अथ दक्षिणोत्तरपाश्ववातफलमानयति
उदयं भृमुह बेहो छरज्जु सत्तमचरज्जु रज्जू य । जोयण चोइस सचमतिरियोचि हु दकिवणुसग्दो ॥१३४।। उदयः भूमुखं वेधः षडरज्जवः सक्षमपद रज्जवः रज्जुश्च ।
योजनचतुर्दश सप्तमस्तिर्यगन्तं हि. दक्षिणोत्तरतः ।।१३४।। उमये । उायः ६ ३मुखं ७ मा १४ बामपः ससप्तमपदमव: एकरम्जुः योगमचतुर्वशसप्तमतस्तिकपर्मत खस्नु दक्षिणोत्तरतः मुन्नभूमीत्येकधारमपवयनितव्यम् ॥१४॥
दक्षिणोत्तर पार्वभागों में पवनों से अवरुद्ध क्षेत्र का क्षेत्रफल
पापा:-दक्षिणोत्तर अपेक्षा सप्तम पृथ्वी से मध्यलोक पर्यन्त पवनों का उदय ( ऊंचाई ) ६ राज, भूमि ६६ राजू, मुख १ राजू मोर वेध ( मोटाई । १४ योजन प्रमाण है ।।१३४।।
विशेषा:-सक्षम पृथ्वी के निकट पवनों की चौड़ाई ६ अर्थात् राजू है, यह भूमि है। तिर्यग्लोक के निकट पवनों की चौड़ाई १ राजू अर्थात् राजू है, यह मुख है । भूमि और मुख को जोर कर माधा करने पर जो लाध मावे उसमें सप्तम पृथ्वी से मध्य लोक पर्यन्त पवनों की ऊंचाई ६ राजू से गुणा करना चाहिए तथा लब्धाङ्कों को पुनः पवनों की मोटाई ( वेध ) १४ योजन से गुणा करने पर जो लब्ध प्राप्त हो, वह एक पारवं भाग का क्षेत्रफल होगा। दोनों पाश्वभागों का क्षेत्रफल प्राप्त करने के लिए २ से गुणा कर दुगुना कर लेना चाहिए। जैसे - भूमि + मुख अर्थात " +3= आधा करने पर ११ राजू लन्ध आया। ५ x x x - २५ x ६४ १४ x २ =६०० योजन क्षेत्रफल दोनों पाश्र्वभागों में वायुरुद्ध क्षेत्र का प्राप्त हुआ। अथ तसिद्धफलमुच्चारयति
तस्थाणिलखेषफलं उमः पासम्हि हो. जगपदरं । छस्मयजोयणगुणिदं पविभतं भवग्गेण ।। १३५॥ तत्रानिलक्षेत्रफलं उभयस्मिन् पाश्व भवति अगाप्रतरः ।
घट छत्तयोजनगुणितः प्रविभतः समवगेण ।।१३५५ तस्या । छायामानमेवार्यः ॥१३५॥ प्राप्त हुए सिवफल को कहते हैं