Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ : 4: प्रस्तावना ११ aarat परिणतिको पर्याय कहते हैं । इसके व्यञ्जनपर्याय तथा अर्धपर्यायकी अपेक्षा दो भेद है । प्रदेश व गुणको अपेक्षा किसी आकारको लिये हुए द्रव्य की जो परिणति होती है उसे व्यञ्जनपर्याय कहते हैं और अन्य गुणोंकी अपेक्षा बहुगुणी हानि - वृद्धिरूप जो परिणति होती है उसे अर्थपर्याय कहते हैं । इन दोनों पर्यायोंके स्वभाव और विभाव की अपेक्षा दो-दो भेद होते है । स्वनिमित्तकपर्याय स्वभावर्याय है और परनिमितक पर्याय विभावर्याय है । जीव और पुद्गलको छोड़कर शेष चार द्रव्योंका परिणमन स्वनिमित्तक होता है अतः उनमें सदा स्वभावपर्याय रहती है। जोव और पुद्गलको जो पर्याय परनिमित्तक है वह विभावर्याय कहलाती है और परका निमित्त दूर हो जानेपर जो पर्याय होती है वह स्वभावपर्याय कही जाती है । संसारका प्रत्येक पदार्थ, द्रव्य, गुण और पर्यायसे तन्मयोभानको प्राप्त हो रहा है। क्षणभरके लिये भी द्रव्य, पर्यायसे विमुक्त और पर्याय, द्रव्यसे विमुक्त नहीं रह सकता। यद्यपि पर्याय क्रमवर्ती है तथापि सामान्य रूप से कोई-न-कोई पर्याय प्रत्येक समय रहती है। इसौ द्रव्यपर्यायात्मक पदार्थको दर्शनशास्त्र सामान्य विशेषात्मक कहा जाता है । द्रव्य के बाद जैन शास्त्रों में जीव, अजीव, मलव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों का वर्णन आता है । तत्त्व शब्दका प्रयोग जैनदर्शनके सिवाय सांख्यदर्शन में मो हुआ है । सांख्यदर्शनमें प्रकृति, महान् आदि पच्चीस तत्वोंकी मान्यता है । वस्तुतः संसारमें जिस प्रकार जोव और अजोव ये दो ही द्रव्य हैं उसी प्रकार जोन और अजीव ये दो ही तत्व है । जीवके साथ अनादिकालसे कर्म और नोकर्मरूप अजोबका सम्बन्ध हो रहा है और उसी सम्बन्धके कारण जीवकी अशुद्ध परिणति हो रही है। जॉब और जीवका परस्पर संबन्ध होने का जो कारण है वह आस्रव कहलाता हूँ। दोनोंका परस्पर सम्बन्ध होने पर जो एक श्रेयामगारूप परिणमन होता है उसे बन्ध कहते है । आस्रव के रुक जानेको संवर कहते हैं । सत्ता में स्थित पूर्व कर्मोंका एकदेश दूर होना निर्जरा है और सदा के लिये आत्मासे कर्म और नोकर्मका छूट जाना मोक्ष है । 'तस्य भावस्तत्त्वम्' – जीवादि वस्तुओंका जो भाव है वह तत्त्व कहलाता है । 'तत्त्व' यह भावपरक संज्ञा है । मोक्षमार्गके प्रकरण में ये सात तत्त्व अपना बहुत महत्त्व रखते है । इनका यथार्थ निर्णय हुए बिना मोक्षकी प्राप्ति संभव नहीं है । कुन्दकुन्दस्वामीने इन्हीं खास तरयों के साथ पुण्य और पापको मिलाकर नौ पदार्थोंका मिरूपण किया है। जिस प्रकार घट पदका वाच्य कम्बुग्रीवादिमान् पदार्थविशेष होता हूँ उसी प्रकार जीवादि पदोंके वाच्य चेतनालक्षण जीव, कर्मनो कर्मादिरूप अजांव, कर्मा - गमनरूप मानव, एक क्षेत्रावगाहरूप बन्ध, कर्मागमननिरोधरूप संदर, सप्तास्थित कमौका एकदेश दूर होनेरूप निर्जरा, समस्त कर्म नोकमौका आत्मप्रदेशों से पृथक् होनेरूप मोक्ष, शुभाभिप्राय से निर्मित शुभ प्रवृत्तिरूप पुण्य और अशुभामिप्रायसे निर्मित अशुभ प्रवृत्तिरूप पाप होते हैं। इसीलिये पदार्थ - शब्दार्थ की प्रधानदृष्टिसे ये पदार्थ कहलाते हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 ... 285