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तत्वार्थसार जब इस प्रकारका विचार उठता है तब श्राकाशका अस्तित्त्व नियमसे अनुभवमें आता है। इस तरह षडदश्यमय लोक है। लोकके अन्दर ऐसा एक भी प्रदेश नहीं, जहाँ जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य अपना अस्तित्व नहीं रखते हों । हो लोकके बाहर अनन्त प्रदेशों वाला मलोक है, जहां जाकाश सिवाय किर्स अप प्रयका अस्तित्व नहीं है।
जीव द्रश्य अनन्त है, पुद्गल उनकी अपेक्षा बहुत अधिक अर्थात् अनन्तानन्त हैं, धर्म .. और अधर्म द्रव्य एक-एक हैं, आकाश भी एक है और काल असंख्यात है। लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक कालद्रव्य विद्यमान रहता है। वह स्वयं में परिपूर्ण रहता है न कि किसो द्रव्यका अङ्ग, अवयव या प्रदेशरूप होकर रहता है। यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि चूंकि धर्म और अधर्म दृश्यका कार्य आकाशम होता है अतः धर्म और अधम द्रव्यकी कल्पना निरर्थक है, आकाशसे ही उनका कार्य निकल सकता है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि उनकी कल्पना निरर्थक नहीं है, सार्थक है। यदि आकाशके ऊपर ही गति और स्पितिका काम निर्भर हो तो लोक और अलोकका विभाग नहीं बन सकेगा, क्योंकि आकाश तो आलोकाकाशमें भो विद्यमान है। उसके विद्यमान रहते जीव और पुद्गलको गति तया स्थिति अलोकाकाशमें भी होने लगेगी, तब लोक और अलोकका विभाग कहाँ हो सकेगा? ___जीवादि छह दध्योंमें अस्तिकाम और अनस्तिकायकी अपेक्षा भी भेद होता है। जिसमें अस्तित्वके रहते हुए बहुत प्रदेश पाये जाते हैं उन्हें अस्तिकाय कहत है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश पे पाँच द्रब्य बहादेशी होनेसे अस्सिकाय कहलाते है
और कालव्य एकप्रदेशी होनेसे अनस्तिकाम कहलाता है। पुद्गल द्रम्पका एक भेद परमाणु भी यद्यपि द्वितीयादिक प्रदेशोंसे रहित है तथापि स्कन्धरूप बननेको शक्तिसे युक्त होने के कारण उसे भी अस्तिकाय ही कहते हैं ।
द्रव्यका लक्षण शास्त्रों में 'सद्बमम्', 'उत्पादन्ययनौव्ययुक्तं सत्' और 'गुणपर्ययवद्दव्यम्' कहा है अर्थात् जो सत्ता रूप है वह द्रव्य है । सत्ता, उत्पाद, व्यय और प्रोम्परूप होतो है । अथवा जो गुण और पर्यायोंसे सहित है वह द्रव्य है। पुदगल द्रव्यके उत्पाद व्यय और धोव्य हमारी दुष्टिमै स्पष्ट ही आते है और पुद्गलके माध्यमसे जोवद्रम्यके उत्पाद, व्यय, धौव्य भी अनुभव में आते है। शेष अरूपी द्रव्यों के उत्पाद, व्यय, प्रौव्यको हम आगम प्रमाणसे जानते हैं।
जो द्रव्यके आश्रय रहता हुआ भी दूसरे गुणसे रहित हो उसे गुण कहते हैं । ' सह सामान्य और विशेषकी अपेक्षा दो प्रकारका होता है। अस्तित्त्व, वस्तुत्व, प्रमेमत्य, अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं तथा चेतनत्व, रूपादिमत्व आदि विशेष गुण है।
१. द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।-त. सू.। २. तद्भावः परिणामः |--त. सू.