Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 9
________________ ::: प्रस्तावना द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ द्रव्य शब्दका उल्लेख जैन और वैशेषिक दर्शनमें स्पष्ट रूपसे मिलता है । जैन दर्शनमें जीव, पद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालको द्रव्य कहा है तथा वैशेषिक दर्शनम पृथियी, जल, अग्नि, वायु, आत्मा, आकाश, दिशा, काल और मन इन नौको द्रव्य कहा है । वैशेषिकदर्शन सम्मत पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन, शरीरको अपेक्षा पुदगल द्रव्यमें गभित हो जाते हैं और आत्माको अपेक्षा जीवमें गभित रहते है ! आकाश, काल और आत्मा ( जीव ) ये तीन द्रव्य दोनों दर्शनों में स्वतन्त्र रूपसे मान गये है। वैशेषिक दर्शनाभिमत दिशा नामक द्रव्य आकाशका ही विशिष्ट रूप होनेसे उसमें गभित है। इस तरह वैशेषिक सम्मत समस्त दव्य जनोंके जीव, पुद्गल, आकाश और कालम गभित हो जाते है। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यको कल्पना वैशेषिक दर्शनमे नहीं है । ये दोनों द्रव्य जैन दर्शन में ही निरूपित है। छह ग्योंमें जोवद्रव्य चेतन है और शेष पांच द्रध्य अचेतन है । अथवा पुद्गल द्रव्य, दृश्यमान होनेसे सबके अनुभव में आ रहा है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श जिसमें पाया जाता है वह पुद्गलद्रव्य है अत: जो भी वस्तु रूपादिसे सहित होने के कारण दृश्यमान है वह सब पुद्गल द्रव्य है। जीवके साथ अनादिसे लगे हुए कर्म और नोकर्म ( शरीर ) स्पष्ट रूपसे पुद्गलद्रव्य है। जोषद्रव्य अमूर्तिक होनेमे यद्यपि दिखाई नहीं देता तथापि स्वानुभवके द्वारा उसका बोध होता है। जो सुख-दुःखका अनुभव करता है और जिसे स्मृति तथा प्रत्यभिज्ञान आदि होते हैं वह जीवद्रव्य है। ज्ञान-दर्शन इसके लक्षण है। जीवित और मृत मनुष्यके शरीरको चेष्टाको देखकर जीवका अनुमान अनायास हो जाता है। पुद्गलमें हम भिन्न-भिन्न प्रकारके परिणमन देखते हैं । मनुष्य, बालकसे पुवा और युवासे वृद्ध होता है । यह सब परिण मन काप्लट्रब्यकी सहायतासे होते है, इसलिये पुद्गलको परिणतिसे कालद्रष्यका अस्तित्व अनुभव में आता है। हम देखते हैं कि जीव और पुदगलमें गति होती है-वे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर बरते जाते दिखाई देते है। इसका कारण क्या है ? जब इसके कारणको ओर दृष्टि जाती है तब धर्मद्रव्यका अस्तित्व अनुभवमें आने लगता है। जीव और पुदगल चलते-चलते रुक जाते है-एक स्थानपर ठहर जाते हैं। इसका कारण क्या है ? जब इसपर विचार करते हैं तब अधर्मद्रश्यका अस्तित्व अनुभवमें आये बिना नहीं रहता। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल ये द्रव्य कहाँ रहते है ? निना आधारके किसी भी पदार्थका अस्तित्त्व बुद्धिमें नहीं आता ।

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