Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam Author(s): Dharmdhurandharsuri Publisher: Jain Vidya Shodh SamsthanPage 63
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् हिंसासक्तः पुरुषः, तत्र धन्वा, तन्निवारकत्वात् / सारङ्गः-अग्नि:, स. एव धनु:-स्थलं स्वतेजस: स्थापने यस्येति वा / 'दिनान्ते निहितं तेजः सवित्रेव हुताशनः // ' इत्युक्तेः / / 129|| . "सहस्राक्षः" 130 इति / सहस्राणाम् अक्षः-स्तुत्यः / सहस्रप्रमिता अक्षा:-व्यवहारा यस्येति वा // 130 // “सहस्रांशुः" 131 इति / सहस्रमंशवो यस्य स तथा / सहस्रधा जगत् तेन तेन रूपेण अंशयति-विभजतीति वा / / "131 // “सहस्रधामा" 132 इति / सहस्रं-सहस्रप्रकारं धाम-बलं तेजो वा यस्य स तथा / सहस्रधा मिमीते विश्वमिति वा क्विप्प्रत्ययान्तः / सहस्रं धामानिप्रभावा यस्येति वा / 'गृह-देह-त्विट्-प्रभावा धामानि // ' इत्यमरः // 132 // "सहस्रदीधिति:" 133 इति / सहस्रं दीधीते-दीप्यतीति सः / सहस्रं दीधितय:-क्रीडनानि यस्येति वा / 'दीधीङ् दीप्ति-देवतयोः' इत्यस्य क्तिप्रत्ययान्तस्य रूपम् // 133 // “सहस्रपात्" 134 इति / सहस्रं पिबतीति-पृथिव्यादि, क्रमेण लीलं करोतीति सहस्रपाः,प्रकृतिः / ताम् अत्तीति सहस्रपात्; प्रलये स्वयमेवावशिष्टः / सहस्रं पान्तीति सहस्रपाः, दैत्याः / तान् अत्तीति वा // 134 / / "सहस्रचक्षुः" 135 इति / सहस्रं चष्टे सहस्रचक्षुः / सहस्रशब्देनाऽत्र बहुत्वोक्तेः सर्वद्रष्टेत्यर्थः / सहस्रैः-अपरिमितैः चक्ष्यते-ख्यायते प्रतिपाद्यत इति सहस्रचक्षुः / / 135 // "सहस्रोस्रः" 136 इति / सहस्रमुस्रा:-धर्मा यस्मात् स तथा / सह:-बलं रातीति तेन राजन्ते वा सहस्रा इन्द्रादिदेवाः / ते वसन्त्यस्मिन्निति वा सर्वदेवात्मकत्वात् // 136 // "सहस्रकरः" 137 इति / सहस्रेषु अर्थाद् दैत्येषु कर:-दण्डो यस्य सPage Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194