Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam Author(s): Dharmdhurandharsuri Publisher: Jain Vidya Shodh SamsthanPage 84
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् तेष्वधर्ममुत्पाद्य तानाशयतीत्यर्थः / / 331 // "धर्माऽधर्मवरप्रदः" 332 इति / गुण-गुणिनोरभेदोपचाराद् अत्र धार्मिकाऽ-धार्मिकयोः स्वानुरूपफलजनकः // 332 / / "धर्मदः" 333 इति / धर्म-यागादिजन्यमपूर्वं तद् ददाति-फलेन योजयति स तथा / / 333 // "धर्मध्वजः" 334 इति / धर्म:-तमोविनाशित्वलक्षणः, स एव ध्वज:चिहं ज्ञापकं यस्य स तथा। धर्म-उदयाऽस्तमनलक्षणं ध्वजति-गच्छतीति वा। 'ध्वजश्चिहे पताकायां, ध्वजः शौण्डिक-शेफयोः // ' इति विश्वः // 334 // "धर्मवृक्षः" 335 इति / वृश्यते-छिद्यत इति वृक्षः / धर्मेषुसदनुष्ठानलक्षणेषु वृक्ष इंव वृक्षः, तत्तत्कार्यप्रतिबन्धकीभूतप्रभूतप्रत्यूहातपनिवारकत्वात् // 335 // .. "धर्मवृतः" 336 इति / धर्मे:-धर्मप्रधानैर्देवैर्वृत:-व्याप्तः // 336 / / "धर्मवत्सलः" 337 इति / धर्मा:-धार्मिकाः, तेषु वत्सलः / धर्म एव वत्सः धर्मवत्सः, तं लातीति वा // 337 // . 'धर्मकेतुः' 338 इति / धर्मस्य केतुः-संस्थापकः / 'केतुः संस्थापके चिहे / / ' इति मेदिनिः / / 338 // . "धर्मकर्ता" 339 इति / लोकशिक्षायै स्वयमेव धर्मानुष्ठातेत्यर्थः // 339 / / “धर्मनित्यः" 340 इति / धर्मो नित्यो यस्मात् स तथा; यनित्यतया धर्मोऽपि नित्यो भवतीत्यर्थः // 340 // "धर्मराजः" 341 इति / धर्मेण राजत इति धर्मराजः, जमजनकत्वाद् वा। 'आतमा वै जायते पुत्रः / / ' इति श्रुतेः / / 341 // "धर्मरत्नः" 342 इति / धर्मकवच इत्यर्थः / 'रत्नं मणिविशेषे स्यात् क्लीबं वर्मणि चोत्तमे // ' इति मेदिनिः // 342 // 80Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194