Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan

Previous | Next

Page 116
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् "वेदाङ्गः" 638 इति / वेदा एव अङ्ग-शरीरं यस्य स तथा, तन्मयशरीरत्वात् / / 638|| "वैद्यः"६३९ इति / वैद्यः-चिकित्सकः तच्छास्त्रोपदेशकत्वात् // 639 / / "वेदपारगः" 640 इति / वेदानां पारम्-अन्तं गच्छतीति सः, सहस्रशाखोपयुक्तवेदोपदेशकत्वात् / वेदपा:-ब्राह्मणाः, तान् रगति-रक्षतीति वा / 'रग-नग् रक्षणे' इत्यस्य रूपम् // 640 // "वेदभुद६४१ इति / वेदं बिभर्तीति सः // 641 / / "वेदवाहनः" 642 इति / वेदं वाहयति-योजयति तत्तत्क्रियास्विति सः छन्दोमयरथगामित्वाद् वा // 642 / / "वेदवैद्यः" 643 इति / वेद एवं वैद्यः, स्वार्थेऽण् / वेदेन वैद्यो वेदवैद्यः, वेदैकप्रमाणगम्य इत्यर्थः / वेदेनैव वैद्य इति वा, तत्तत्कर्मोपदेशनेन संसाररोगविनाशकत्वात् / / 643 // "वेदविद्" 644 इति / वेदान् वेत्ति-विचारयतीति सः // 644 // "वेदकर्ता" 645 इति / वेदान् करोतीति वेदकर्ता, वेदनिर्मातेत्यर्थः / मीमांसकमते वेदस्य नित्यत्वात् प्रथमवेदाध्येता / यदुक्तम्'स्वयम्भूरेष भगवान्, वेदो गीतस्त्वया पुरा। शिवाद्या ऋषिपर्यन्ताः स्मारोऽस्य न कारकाः // ' इति // 645|| "वेदमूर्तिः" 646 इति / वेदा एव मूर्तिः-शरीरान्तरं यस्य स तथा // 646 / / वेदनिलयः" 647 इति / वेदुषु नितरां लय:-चित्तैकाग्ग्रं यस्य स तथा। वेदा एव निलयं-गृहं यस्येति वा / / 647 // . "ज्योमग:" 648 इति / व्योनि-आकाशे गच्छतीति स तथा // 648|| "व्योममणिः" 649 इति / व्योम्न:-आकाशस्य मणिरिव मणिः, तदलकारकारित्वात् / / 649 // 112

Loading...

Page Navigation
1 ... 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194