Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan

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Page 117
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् "वेगवान्' 650 इति / वेग:-जव:, तद् विद्यते यस्य स तथा, शीघ्रगामित्वात् / तदुक्तम्'योजनानां सहस्रे द्वे, द्वे शते द्वे च योजने। . एकेन निमिषार्धेन, क्रममाण ! नमोऽस्तु ते / / ' इति // 650 // "व्यक्ताव्यक्तः" 651 इति / चक्षुर्ग्राह्यमण्डलत्वेन व्यक्तः, . चिदानन्दरूपतया अव्यक्तः; पश्चात् कर्मधारयः / / 651 // "वीरः" 652 इति / विशेषेण ईरयति-कम्पयति शत्रूनिति वीरः, प्रत्यहं / / सन्देहोपघातकारित्वात् // 652 // "वैश्रवण:" 653 इति / वै-निश्चयेन श्रवणं-श्रुतिर्यस्य स तया, सर्वत्र विख्यातत्वात् / वैश्रवण:-धनद इति वा, सकलद्रव्याणामेतदधीनत्वात् // 653 // "विगाही" 654 इति / जगद्विगाहितुं शीलमस्येति स तथा // 654 // "विघ्नशमनः" 655 इति / विघ्नान् शमयतीति सः // 655|| "विघृण:" 656 इति / विशिष्टा घृणा-दया यस्य स तथा, सर्वेषु दयावानित्यर्थः // 656 / / “विग्रहः" 657 इति / विशिष्टो ग्रहः-ग्रहणं यस्य स तथा; विशिष्टा ग्रहा यस्मादिति वा / / 657 // “विकृति:" 658 इति / विविधाः कृतयः-सृष्ट्यादिरूपा यस्य स तथा // 658 // "वक्ता" 659 इति / वक्तीति वक्ता, अनेकशास्त्रप्रणेतृत्वात् // 659 / / “विगतारिष्ट:" 660 इति / विगतमरिष्टं यस्मात् स तथा, 'शुभस्थाने स्थिते सूर्ये सर्वारिष्टं विनश्यति / / ' इति ज्योतिःशास्त्रप्रसिद्ध / विगतमरिष्टं-सूतिकागृहं यस्मादिति वा, तदुपास्तिकृतां भवे पुनर्भावाभावात् / / 660 // “विगतात्मा" 661 इति / विशेषेण विविधै रूपैर्वा गत:-अवगत: आत्मा 113

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