Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan
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________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् .. "ज्ञेयः" 758 इति / ज्ञातुं योग्यो ज्ञेयः, श्रुति-स्मृति-पुराणादिभिर्बोर्छ योग्य इत्यर्थः / / 758 // "केयूरी" 759 इति / केयूरम्-आभरणविशेषः, तदस्यास्तीति तथा // 759 / / “कीर्तिः" 760 इति / कीर्तिप्रदातृत्वाद् लोकै: कीर्त्यत इति वा . : कीर्तिः।।७६०॥ “कीर्तिवर्धनः" 761 इति / एकदिग्गामिनी कीर्तिः, तां वर्धयति-वृद्धिं नयतीति स तथा / कीर्तिं वर्धयति-नाशयति अर्थाद् दैत्यानामिति वा // 761 // “कीर्तिकरः" 762 इति / कीर्ति:-विस्तारम् अर्थाजगत: करोतीति स तथा / 'कीर्तिर्यशसि विस्तारे प्रसादे कर्दमे / / ' इत्यनेकार्थः // 762 // "केतुमान्" 763 इति / केतु:-ग्रहविशेषः, सोऽस्यास्तीति केतुमान् / / 763 / / "गगनकेतुः" 764 इति / गगनस्य-आकाशस्य केतुरिव केतुः, .. गगनशोभाकारित्वेन चिह्नरूपत्वेन स्थितत्वात् // 764 // "गगनमणिः" 765 इति / गगने मणिरिव मणिः, तदुद्द्योतकत्वात् / / 765 // "कला" 766 इति / षोडशोऽश: कला शशिनः, तद्वृद्धिकारित्वात् / 'द्विसप्तति: कलाः पुंसां, चतुःषष्टिस्तु योषिताम् / / ' तदुपदेष्टुत्वात् / / 766 // "कल्प:"७६७ इति / कल्पहेतुत्वात् सः // 767 // “कल्पान्तः" 768 इति / कल्पस्य अन्त:-अवसानं यस्मात् स तथा। कल्पस्य अन्त:-निश्चयो यस्मादिति वा / / 768 / / "कल्पान्तकः" 769 इति / कल्पे-युगान्ते अन्तक इव अन्तकः, सकलोच्छेदकारित्वात् // 769 / / कल्पान्तकरण:" 770 इति / कल्पस्य-आचारस्य अन्त:-निश्चयः क्रियतेऽनेनेति सः / मधु-कैटभादिनाशार्थं कल्पान्ते के-जले रणो यस्येति वा // 770 // 123
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