Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan
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________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् "गतिमान्" 829 इति / गतिः-ज्ञानम्, तद्वान्; सर्वविषयकज्ञानवानित्यर्थः / मङ्गलारिभ्य: शीघ्रगतिमत्वाद् वा / / 829 // “लोहिताङ्गः" 830 इति / लोहितमङ्गं यस्य स तथा / उदयाऽस्तमनयोस्तथाप्रतिभासमानत्वात् / लोहिताङ्गः-मङ्गलः, तत्कारणत्वाद् वा। 'आरो वक्रो लोहिताङ्गो मङ्गलोऽङ्गारकः कुजः // ' इति हैमः / / "लोकाध्यक्षः" 831 इति / लोकान् अध्यक्ष्णोति-व्याप्नोतीति स तथा। लोकानामध्यक्षः, तद्रक्षायै नियुक्त इति वा / / 831 // "लोका-ऽलोकनमस्कृत:" 832 इति / लोका:-संसारान्तर्वर्तिनो जनाः, तब्यतिरिक्ता:-अलोकास्तैर्नमस्कृत:-प्रणतिविषयीकृत इत्यर्थः / लोकः-ज्ञानं तेनालोको येषां ते लोकालोकाः, परमयोगिनः / तैर्नमस्कृत इति वा / / 832 // "लोकसाक्षी" 833 इति / लोकानामन्तर्यामित्वेन तत्कृतकर्मणां साक्षीप्रतिभूः / / 833 // "लोकबन्धुः" 834 इति / लोकानां बन्धुरिव बन्धुः, परमोपकारकारित्वात् / / 834 // "लोकवत्सलः" 835 इति / लोकानां वत्सलः-हितकारी // 835 / / "लोकेश:" 836 इति / लोका:-चतुर्दश, तेषामीश:-स्वामी / / 836 / / "लोककरः" 837 इति / लोकं-जगत् करोतीति सः / / 837 / / "लोकनाथ:" 838 इति / लोकै थ्यते-याच्यतेऽभीष्टमिति सः / लोकस्य नाथा यस्मादिति वा / / 838 // "लोकत्रयाशयः" 839 इति / लोकत्रये आशय:-अन्तकरणं यस्य स तथा / लोकत्रितयरक्षायां दत्तमानसः / लोकत्रयस्याश्रयो वा, कल्पान्ते सर्वेषां तत्रावस्थितेः / 'आशयः स्यादभिप्रायेऽप्याश्रये पनसद्रुमे।' इति मेदिनिः / / 839 / / "लय:" 840 इति / लीयते कल्पान्तावस्थायां जगदस्मिनिति सः // 840 // 129
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