Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan

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Page 101
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहत्रयम् "प्रयत:" 491 इति / लोकरक्षायै प्रयततीति प्रयतः, तदुद्देशेनैव तत्प्रवृत्तेः // 49 // "प्रीति:" 492 इति / प्रीति:-सन्तोषः, तद्धेतुत्वात् / / 492 // .... "प्रयतानन्दः" 493 इति / प्रयता:-साधवः, तान् आनन्दयतीति सः, तेषामानन्दो यस्मादिति वा // 493 // "प्रयतात्मा" 494 इति / प्रयतं-सनियमम्, आत्मा-अन्त:करणं जायते. यस्मादिति सः // 494 // "प्रीतात्मा" 495 इति / प्रीत:-सर्वभूतेषु समः, आत्मा यस्य स तथा, सर्वभूतेषु सदृश इत्यर्थः // 495 / / "प्रीतिमनाः" 496 इति / प्रीतौ-सन्तोष मनो यस्य स तथा, सकलतृष्णोच्छेदकत्वात् / / 496 / / "प्रकाशनः" 497 इति / प्रकाशयतीति प्रकाशन:, अखिलपदार्थावभासकत्वात् / / 497 // "प्रकृति:" 498 इति / प्रकृति:-माया, तत्प्रवर्तकत्वात् / / 498 // "प्रकृतस्थित:" 499 इति / प्रकर्षेण कृतं स्थित:-स्थानं भक्तानां येनेति सः // 499 // “प्रलम्बहारः" 500 इति / प्रलम्बो-लम्बो हारो यस्य स तथा / प्रलम्बतेऽस्मिन् पापिन: इति प्रलम्बः, नरकः / तं हरतीति वा / / 500 // // इति पादशाहश्रीअकब्बरसूर्यसहस्रनामाध्यापक-श्रीशत्रुञ्जयतीर्थकरमोचनाद्यनेकसुकृतविधापकमहोपाध्यायश्रीभानुचन्द्रगणिविरचितायां तच्छिष्याष्टोत्तरशतावधानसाधनप्रमुदितपादशाहश्रीअकब्बरप्रदत्त खुस्फहमा पराभिधानमहोपाध्यायश्रीसिद्धिचन्द्रगणिशोधितायां शेखश्रीअबुलफलजकारितायां चतुश्चत्वारिंशदधिकश्रीसूर्यसहस्रनामटीकायां पञ्चमशतविवरणं समाप्तम् / / पाणी 97

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