Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan

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Page 108
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहवयम् "जगज्जेता" 553 इति / जगज्जयतीति जगज्जेता, त्रैलोक्यजयशालीत्यर्थः // 553 // "यज्ञः" 554 इति / यजनं यज्ञ:-वेदोक्तमन्त्रोच्चारणपूर्वकमाहुतिविशेषः, एतदुद्देशेन क्रियमाणत्वात् // 554 // "यज्ञपति:" 555 इति / यज्ञानां-ज्योतिष्टोमप्रभृतीनां पति:-स्वामी, तत्प्रत्यूहकारिणां विनाशकत्वात् // 555 // "चक्रपाणि:" 556 इति / चक्रं पाणावस्येति सः / चक्रं-संसारचक्रं पातीति चक्रपः-विष्णुः, ततोऽपि अणि:-दक्ष इति वा / 'अणिराणवदक्षाने // इति विश्वः // 556 / / "चक्रबन्धुः" 557 इति / चक्राणां-चक्रवाकानां बन्धुरिव बन्धुः, रजनिजनिततद्विरहोच्छेदकारित्वात् / / 557|| "चक्रवर्ती" 558 इप्ति / चक्रे-ज्योतिश्चक्रे वर्तितुं शीलमस्येति स तथा। चक्रवद् वर्तितुं भ्रमिकर्तुं शीलमस्येति वा निरन्तरभ्रमणशीलत्वात् / / 558 // "जनन्नाथः" 559 इति / जगतां नाथा यस्मादिति सः, जगब्यवस्थायै तत्पालकजनोत्पादकत्वात् / जगता नाथ्यते-प्रार्थ्यते स्वसमिहितमिति वा // 559 // "जगत्' 560 इति / जङ्गमीतीति.जगत्, तत्स्वरूपत्वात् / तद्व्यतिरेकेण तदभावात् / / 560 // “जगतामन्तकारण:" 561 इति / जगतामन्त:-विनाशः, तत्र कारणं-हेतु: प्रलये सर्वेषामुच्छेदकत्वात् / जगतामन्तकश्चासौ अरणश्चेति कर्मधारयो वा / सङ्ग्रामव्यतिरेकेण जगत्संहारकर्तेत्यर्थः // 561 / / "जगतांपति:" 562 इति / जगतां-चतुर्दशभुवनानां पति:-स्वामी तद्रक्षाकारित्वात् / / 562 / / 104

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