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सूक्तरत्नावली / 11
3. शास्त्राध्ययन अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से ज्ञानावरण-कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। 4. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। 5. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है।
स्वाध्याय का प्रयोजन
स्थानाङ्गसूत्र में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजन होने चाहिए
1. ज्ञान की प्राप्ति के लिये, 2. सम्यक् - ज्ञान की प्राप्ति के लिए, 3. सदाचरण प्रवृत्ति के हेतु, 4. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने के लिए, 5. यथार्थ का करने के लिए या यथा अवस्थित भावों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ।
आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक (9/25 ) में स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजनों की भी चर्चा की है -
1. बुद्धि की निर्मलता, 2. प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, 3. जिनशासन की रक्षा, 4. संशय की निवृत्ति, 5. परिवादियों की शंका का निरसन, तप-त्याग की वृद्धि और अतिचार (दोषों) की शुद्धि ।
स्वाध्याय का साधक जीवन में स्थान
स्वाध्याय का जैन परम्परा में कितना महत्त्व रहा है, इस सम्बन्ध में अपनी ओर से कुछ न कहकर उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से ही अपनी बात को स्पष्ट करूँगा । उसमें मुनि की जीवनचर्या की चर्चा करते हुए कहा गया है
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दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसु वि ॥ पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई । तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं ॥ रत्तिं पिचउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसु वि ॥
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