Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 115
________________ सूक्तरत्नावली / 113 शिष्या निर्व्यसना एव, भवन्ति विदुषां सखे ! । विनेया असुरा एव, कवेः सन्ति सहस्रशः।। 47611 हे मित्र! विद्वान् मनुष्यों के शिष्य व्यसन रहित होते हैं। कवि के शिष्य (काव्य में वर्णित पात्र) विपुल मात्रा में (हजारों की संख्या में) प्रायः असुरा (मद्यपान न करने वाले) एवं विनम्र होते हैं। निरक्षरोऽपि भूयो भि,-वित्तैर्गच्छति गौरवम् । गोपेन्द्रोऽप्यभवल्लक्ष्मी,-पतित्वात् पुरुषोत्तमः ।।477 || निरक्षर व्यक्ति विपुल सम्पत्ति के फल-स्वरुप गौरव को प्राप्त कर लेता है। गोपों के स्वामी लक्ष्मी पति होने के कारण पुरुषोत्तम (मानवों मे श्रेष्ठ) कहे जाते हैं। शीललीलासखं रूपं, विद्या विनयवाहिनी। वित्तं वितरणाधीनं, ध्रुवं धन्यस्य कस्यचित्।। 478।। निश्चय ही किसी सौभाग्यशाली व्यक्ति मे ही विलासमय सच्चरित्रवान्प, विनयान्वित विद्या एवं दानशील सम्पत्ति (ये तीनों) एक साथ पाई जाती है। संपत्तिः साहसं शील, सौभाग्यं संयमः शमः। संगतिः सह शास्त्रज्ञैः, सकाराः सप्त दुर्लभाः ।। 479 ।। सम्पत्ति, साहस, शील, सौभाग्य, संयम, समता तथा शास्त्रज्ञ (ज्ञानी जन का सहवास) की संगति ये सात सकार वर्ण से प्रारम्भ होने वाले दिव्यगुणों का एक ही व्यक्ति में पाया जाना बहुत ही दुर्लभ है। विवेको विनयो विद्या, वैराग्यं विभवो व्रतम् । विज्ञानं विश्ववाल्लभयं, फलं सुकृतवीरुधः।। 480।। विवेक, विनम्रता, विद्यागम, वैराग्य, वैभव, व्रत (नियमों का सम्यक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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