Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 119
________________ सूक्तरत्नावली / 117 प्रकाशित वैभव एवं विनय से सुप्रसिद्ध विद्यागम ये त्रिपुट धर्म रूपी वृक्ष . के सुन्दर एवं सुस्वादु फल कहे गये हैं। दानं दहति दौर्गत्यं, शीलं सृजति संपदम्। तपस्तनोति तेजांसि, भावो भवति भूतये ।। 495 ।। दान दुर्गति को जलाता है। शील से सम्पत्ति प्राप्त होती है। तप करने से मानव का तेज विस्तृत होता है तथा निर्मल भावों से ऐश्वर्य प्राप्त होता हैं। दीर्घमायुयशश्चारु, शुद्धिं बुद्धिं शुभां श्रियम्। प्राज्यं राज्यं सुखं शश्व,-इत्ते धर्मसुरद्रुमः।। 496 ।। धर्मरूपी कल्पवृक्ष लम्बी उम्र, शुभ्रकीर्ति, पवित्र या स्वच्छ विमलबुद्धि, कल्याणकारी धन, विशाल राज्य एवं चिरस्थायी सुख प्रदान करता है। घटाः कामघटाः सर्वे, धेनवः कामधेनवः । वृक्षाः स्वर्गसदां वृक्षाः, सदा सुकृतशालिनाम्।। 497 ।। __ हमेशा पुण्यवान् व्यक्तियों के लिए सभी घट कामघट (मनोकामनापूर्ण करने वाले) बन जाते हैं सभी गाय कामधेनु बन जाती हैं। सभी वृक्ष कल्पवृक्ष के समान मनोकामना पूर्ण करने वाले बन जाते सुवर्णमणिराजिष्णुः, सर्वालंकारशोभना । सूक्तरत्नावलिरियं, नानाभावविभासुरा।। 498।। सूक्त रत्नावली शोभन वर्ण (अक्षर) समुदाय रूपी रत्नों से प्रकाशवती है, और सभी अलंकारों से अलंकृत तथा विविध भावों (सुविचारों अथवा उपदेशात्मक विचारों से परिपूर्ण) से विशिष्ट शोभाशालिनी बन गई है। 88888888888886GBROSHOROROSSISTRIBOORBOSSIOBB008888888888888806660860000000000000000RRBORRORSCIOB88888888886080 880038888888888888888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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