Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 123
________________ women नन्दनमुनिकृत आलोचना / 121 नन्दनमुनि कृत आलोचना 1. स निष्कलंकं श्रामण्यं चरित्वा मूलतोऽपि हि। आयुः पर्यन्त समये व्यधादाराधनामिति॥1॥ अर्थ-उन्होंने अर्थात् नन्दनमुनिने जीवन पर्यन्त मुनिधर्म का पूर्णतः निष्कलंक रुप से पालन करके जीवन के अन्तिम समय में आराधना अर्थात् समाधिमरण स्वीकार किया। 2. ज्ञानाचारोष्टधा प्रोक्तो यः काल-विनयादिकः । तामें कोऽप्यतिचारोयोऽभून्निन्दामितं त्रिधा।।2।। काल विनयादि जो आठ प्रकार के ज्ञान के अतिचार कहे गये हैं उसमें जो कोई भी अतिचार या दोष लगे हों, उसकी मैं त्रिविध रूप से निन्दा करता हूं। 3. यः प्रोक्तो दर्शनाचारोष्टधा निःशङ्कितादिकः । तत्रमें योऽतिचारोऽभूत् त्रिधाऽपि व्युत्सृजामितम्।।3।। निःशकलंकत्व आदि आठ प्रकार के जो दर्शनाचार कहे गये हैं उनमें मुझे जो कोई भी अतिचार या दोष लगे हो, उनका भी मैं त्रिविध रुप से परित्याग करता हूं। 4. या कृता प्राणिनां हिंसा सूक्ष्म वा बादराऽपि वा। मोहाद्वालोभतो वाऽपि व्युत्सृजामि त्रिधाऽपिताम्।।4।। मोह अथवा लोभ वश सूक्ष्म अथवा स्थूल प्राणियों की जो भी हिंसा हुई हो, उसकी भी मैं त्रिविध रूप से परित्याग करता हूं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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