Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 126
________________ 124 / नन्दनमुनिकृत आलोचना - 16. यश्च मित्राममित्रयो वा स्वजनोऽरिजनोऽपि च । सर्व क्षाम्यतुमेसर्वं सर्वेष्वपि समोस्म्यहम्।।16|| जो मित्र और शत्रु तथा स्वजन अथवा परिजन है वे सभी मुझको क्षमा करें। उन सभी के प्रति मेरा समभाव रहे। 17. तिर्यक्तवे सति तिर्यञ्चो, नारकत्वे च नारकाः । अमरा अमरत्वेच,मानुषत्वे च मानुषाः।।17।। तिर्यञ्च गति में तिर्यञ्चो को नारक गति में नारको को और देवगति में देवताओं को और मनुष्यगति में मनुष्यों को 18. ये मया स्थापिता दुःखे सर्वेक्षामयन्तु ते मम । क्षाम्याम्यहमपितेषां मैत्री सर्वेषु मेखलु ॥18॥ मेरे द्वारा जो भी दुख दिया गया हो वे सभी मुझको क्षमा करें मैं भी उनको क्षमा करता हूं। मैं निश्चय से सभी पर मैत्री भाव रखता हूं। 19. जीवितं यौवनं लक्ष्मी रुपं प्रियसमागमः । चलं सर्वमिदं वात्यानर्तिताब्धितरङ्गवत्।।19|| जीवन, यौवन, लक्ष्मी, सौन्दर्य और प्रिय का समागम ये सभी वायु और समुद्र की तरंग के समान चंचल है। 20. व्याधिजन्मजरामृत्युग्रस्तानां प्राणिनामिह । विना जिनोदितं धर्मं शरणं कोऽपि नापरः ।।20। जन्म, मृत्यु , व्याधि और वृद्धावस्था से ग्रस्त प्राणियों को जिनेश्वर द्वारा कथित धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई भी शरणभूत नहीं है। 21. सर्वेऽपि जीवाः स्वजनाजाताः परजनाश्च ते । विदधीत प्रतिबन्धं तेषु जो को हि मनागपि।।21|| स्वजन परिजन आदि जो सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं, वो मृत्यु को 68800008888888888888888888 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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