Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 129
________________ ms नन्दनमुनिकृत आलोचना / 127 कर्मरूपी ईन्धन को ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा जला दिया है, उनको मैं नमस्कार करता हूं। 32. आचार्येभ्यः पञ्चविद्याऽऽचारेभ्यः नमो नमः। यैधार्यतेप्रवचनं भवच्छेदे सदोद्यतैः ।।32|| जो प्रवचन को धारण करते हैं, भव का उच्छेद करने में उद्यत रहते हैं, ऐसे पंचाचार के पालक आचार्य को मैं नमस्कार करता हूं। 33. श्रुतं बिभ्रति ये सर्वं शिष्येभ्यो व्याहरन्ति च । नमस्तेभ्यो महात्मभ्य उपाध्यायेभ्य उचकैः ॥33॥ जो श्रुत को धारण करते हैं और उसे सभी शिष्यों को प्रदान करते हैं, ऐसे उपाध्याय को मैं श्रेष्ठभावपूर्वक नमस्कार करता हूं। 34. शीलव्रतसनाथेभ्यः साधुभ्यश्च नमो नमः । भवलक्षसन्निबद्धं पापं निर्नाशयन्तिये ।।34|| जो भव को पार करने के लक्ष्य से युक्त हैं और पाप का नाश करते हैं ऐसे शीलव्रत के धारी मुनिजनों को मैं नमस्कार करता हूं। 35. सावधं योगमुपधिं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । यावज्जीवं त्रिविधेन त्रिविधं व्युत्सृजाम्यहम्।।35|| मैं सावध व्यापार अर्थात् हिसांदि पाप प्रवृत्तियों का, वस्त्र आदि मुनि जीवन की उपासना रुप बाह्य परिग्रह का तथा राग द्वेष रूप आंतरिक परिग्रह का तीन करण और तीन योग से विसर्जन करता हूं। 36. चतुर्विधाहारमपि यावज्जीवं त्याजाम्यहमं । उच्छवासे चरमे देहमपि हि व्युत्सृजाम्यहम्।।36।। मैं चार प्रकार के आहार का यावज्जीवन त्याग करता हूं तथा अंतिम श्वास पूर्ण होने पर देह का भी विसर्जन करता हूं। 5800000000000000000000000000 3000000000000000000000000003888888888888888888SROBORODUC888888BOOROSBOOKapowerme..." Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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