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नन्दनमुनिकृत आलोचना / 125
प्राप्त होते ही हैं, उन पर कौन किञ्चित् मात्र भी प्रतिबन्ध लगा सकता है, अर्थात् मृत्यु को रोक सकता है। उत्पद्यते
22. एक
उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते सुखान्यनुभवत्येको, दुखान्यपि स एव हि ॥ 22ll
जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है वह सुख का अनुभव भी अकेला ही करता है और दुख का अनुभव भी अकेला ही करता है ।
23. अन्यद् वपुरिदं तावदन्यद् धान्य धनादिकम् । बन्धवोऽन्येऽन्यश्च जीवो वृथा मुह्यति बालिशः ॥23॥
जिस प्रकार धन धान्य आदि अन्य है उसी प्रकार यह शरीर भी अन्य है, बन्धव भी अन्य है। मूर्ख जीव व्यर्थ ही उन पर मोह करता है । 24. वसा - रुधिर-मांसाऽस्थि-यकृद् - विण्मूत्रपूरिते ।
वपुष्य शुचिनिलये मूर्च्छा कुर्वीतः कः सुधीः ॥24॥
यह शरीर, वसा, रुधिर, मांस, अस्थि, यकृत्, विष्ठा मूत्र आदि से भरा हुआ अशुचि का भण्डार है। ऐसे शरीर पर कौन ज्ञानी पुरुष मोह करेगा।
25. अवक्रयात्तवेश्मेव मोक्तव्य मचिरादपि ।
लालितं पालितं वाऽपि विनश्वरमिदं वपुः ||25||
चाहे इस शरीर का कितना ही पालन पोषण किया जाये, यह तो विनाशशील है, वस्तुतः यह अनादर के योग्य ही है अतः यथाशीघ्र इससे मुक्त होने का प्रयास करना चाहिये ।
26. धीरेण कातरेणापि मर्त्तव्यं खलु देहिना । यन्प्रियेत तथा धीमान् न म्रियेत यथा पुनः ||26||
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