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122 / नन्दनमुनिकृत आलोचना
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5. हास्य-भी क्रोध लोभाधैर्यन्मृषा भाषितं मया
तत् सर्वमपि निन्दामि प्रायश्चित्तं चरामि च ।।5।।
हास्य, भय, क्रोध, लोभ आदि के वश मेरे द्वारा जो भी मिथ्याभाषण किया गया उसकी भी मैं निन्दा करता हूं और उसका प्रायश्चित करता हूं। 6. अल्पभूरि च यत् काऽपि परद्रव्यमदत्तकम् ।
आत्तं रागादथ द्वेषात् तत् सर्वं व्युत्सृजाम्यहम्।।6।।
राग द्वेष से जो कोई भी कम अधिक मात्रा में अदत्त परद्रव्य ग्रहण किया हो उसका भी मैं परित्याग करता हूं। 7. तैरश्चं मानुषं दिव्यं मैथुनं मयका पुरा
यत् कृतं त्रिविधेनापि त्रिविध व्युत्सृजामितत्॥7॥
तिर्यंच, मनुष्य और देव योनियों में मेरे द्वारा जो पहले मैथुन कर्म किया उसका भी त्रिविध - त्रिविध रुप (तीन करण और तीन योग) से त्याग करता हूं। 8. बहुधा यो धन धान्य पश्वादीनां परिग्रहः ।
लोभ दोषान्मयाऽकारि व्युत्सृजामि त्रिधापितम्।।8।।
लोभ के दोष से जो बहुत प्रकार के धन धान्य पशु आदि का मेरे द्वारा परिग्रहण हुआ उसका भी मैं त्रिविध रुप से विसर्जन करता हूं। 9. पुत्रो कलो मित्रे च बन्धौ धान्यो धने गृहे ।
अन्येष्वपि ममत्वं यत् तत् सर्वं व्युत्सृजाम्यहं।।७।।
पुत्र, स्त्री, मित्र, बन्धु, धन-धान्य, घर तथा अन्य वस्तुओं पर जो मेरी ममत्व वृत्ति रही है उसका भी मैं विसर्जन करता हूं। 10. इन्द्रियैरभिभूतेन य आहारश्चतुविधः ।
मया रात्रावुपाभोजि निन्दामि तमपि त्रिधा ।।10।
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