Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 122
________________ 120 / सूक्तरत्नावली 2 8888888888888881 भासित एवं कण्ठ में विराजित इस सूक्तरत्नावली द्वारा मनुष्य अर्थ विश्लेषण (द्रव्योपार्जन) में समर्थ बुद्धिवाला हो सकता है। अगाधरसनिष्यन्द,-धारिणी पापवारिणी। एषा पुनातु गंगेव, सर्व सर्वज्ञवल्लभा।। 508 ।। गहनरस (काव्य रस या आनन्द) निर्झर धारण करने वाली तथा पापों से बचाने वाली सर्व विद्वानों की प्रिया यह सूक्तरत्नावली गंगा नदी के समान सभी को पवित्र करे। अलंकरोति यत्कण्ठ,-पीठे मे षा मनोरमा। तानन्यायान्ति सोत्कण्ठं, सर्वाः स्वयंवराः श्रियः। 1509 ।। यह मन को प्रसन्न करने वाली सूक्तरत्नावली जिस व्यक्ति के कण्ठ को सुशोभित करती है। ऐसे व्यक्तियों के सम्मुख स्वयम् वरण करने वाली लक्ष्मी उत्कंठित होकर समुपस्थित हो जाती है। नानावाऽमयमाणिक्य,-परीक्षणविचक्षणैः। श्रीलामविजयाह्वानै,-रशोधि विबुधैरियम् ।। 510।। अनेक काव्य ग्रन्थ रुपी माणिक्य के परीक्षण में विचक्षण विद्वत्वर्य श्री लाभविजयसूरि द्वारा इस ग्रन्थका शोधन किया जाता है। (श्री लाभ विजय सूरि म.सा. ने इस ग्रंथ की शोध की हैं।) यावदम्बरूहां बन्धु,-हते गगनांगणम् । कण्ठे स्थिता तावदसौ, चिरं सौभाग्यमश्नुताम्।।511 ।। जब तक आकाश में कमल के बन्धु (सूर्य) विराजमान है तब तक यह कण्ठ प्रदेश में विराजित सूक्तरत्नावली चिरकाल पर्यन्त सौभाग्य (सुन्दर कीर्ति) का आस्वादन करती रहें। विद्वत् जन इसके माध्यम से विपुल कीर्ति वाले चिरकाल तक बने रहे ऐसी कामना हैं। 3880000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000086660000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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