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रत्नावली / 111
महस्विनां महोहान्यै, मिलितः स्यात् खलः खलु । द्विजिव्हदर्शनादासीत्, प्रदीपे दीप्तिमन्दता ।। 467 ।।
निश्चित ही दुष्ट व्यक्ति के मिलने से तेजस्वी व्यक्ति के तेज की हानि होती है। सर्प के दर्शन से दीपक के प्रकाश मे मन्दता आ जाती है ।
मृतिरास्तां प्रमीलाऽपि प्रभूणां कृत्यहानये । न किं कार्यनिषेधोऽभूत्, प्रसुप्ते पुरुषोत्तमे ? | 1468 | |
अपने स्वामी के कार्य हानि मे प्रमीला ( अत्यन्त प्रिय) भी मृत सी ( मरण तुल्य) हो गई। क्या पुरुषोत्तम (नारायण या विष्णु) के सो जाने पर ( शयन करने पर) मांगलिक कार्यों का निषेध नहीं हो जाता है ? अर्थात् मांगलिक विवाह आदि कार्य नहीं होते हैं।
निर्धनोऽपि महान् प्रायो, महत्त्वख्यातिभाग् भवेत् । कथितोऽनेकपः किं नो, - दरम्भरिरपि द्विपः ? | | 469 । ।
कभी-कभी धनहीन व्यक्ति (गरीब) प्रशंसा एवं ख्याति का पात्र बन जाता है। अपने उदर मात्र का ही भरण करने वाले हाथी की अनेक बार कई लोगों द्वारा प्रशंसा की गई है।
गृहस्थानोचिता पर्षत् जायते महतामपि । श्मशानवेश्मनः पार्श्वे, शिवा तिष्ठति सर्वदा ।। 470 ।।
महान् व्यक्तियों की पारिवारिक स्थिति घर एवं स्थान के अनुरूप हो जाती है। शंकर के पास सदा शिवा बैठती है।
वसन् मूर्खेष्वमूर्खोऽपि, पशुरेवाभिधीयते । जडजातासनो ब्रह्मा, - ऽप्यज एव मतः सताम् ।। 471 ||
मूर्ख व्यक्तियों के मध्य में निवास करता हुआ बुद्धिमान् व्यक्ति भी पशु समान कहा जाता है । कमलासन ब्रह्मा भी (जड़ कमल वसति के
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