Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 111
________________ सूक्तरत्नावली / 109 अथवा विष्णु पत्नी लक्ष्मी का वाणी देवी सरस्वती के साथ वैर भाव नहीं है ? अर्थात् इनमें परस्पर (डाह) भाव रहता है। वासदोषः सखेऽवश्यं, शुद्धात्मन्यपि जायते। जाड्यं जडनिवासित्वाद, द्विजराजेऽप्यभून किम्? 1458 ।। हे मित्र! दोष युक्त स्थानों से शुद्धात्माजन में अवश्य दोष उत्पन्न हो जाते है। चन्द्रमाँ में जड़ सम्पर्क (जड़ीभूत तारकवृन्द के सहवास स्वरुप) के कारण क्या जड़ता (शीतलता) नहीं हुई ? अर्थात् चन्द्रमा सम्पर्क से शीतल हो गया। न हृष्यन्त्यसितात्मानः, संपत्तौ सुकृतात्मनाम्। मुद्रिते काकपाकानां, द्विजराजोदये दृशौ।। 45911 कलुषित मन वाले व्यक्ति पुण्यात्माओं के वैभव को देखकर प्रसन्न नहीं होते है। चन्द्रमाँ के उदित होने पर काकशिशु की आँखे बन्द हो जाती है। पापिनां पापिभिः साकं, संगः संगतिमंगति। वयस्य ! पश्य मातंगैः, संगतान् मधुपानिमान्।।460 ।। पापात्मा व्यक्तियों की पापीजनों के साथ संगति ही संगति बन जाती है। है मित्र! हाथियों के साथ मिले हुए इन भ्रमरों को देखो। अनधीतवाड्.मयानां वक्रा भवति पद्धतिः। यदश्रुतय एवेह, यान्ति जिह्मा दिवानिशम्।। 46111 शास्त्राध्ययन से विमुख व्यक्ति कुटिलतापूर्ण होता है। इस संसार में सर्प अश्रुत (कान न होने से) दिन-रात कुटिल चाल चलता धने स्वल्पेऽपि तुगांना, धनित्वख्यातिरद्भुता। ऐश्वर्यश्रुतिरेकस्मिन्, वृषभे वृषभेशितुः।। 462|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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