Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 110
________________ 108 / सूक्तरत्नावली · नष्ट बुद्धि वाले व्यक्तियों का स्थान दुर्व्यसन सम्पन्न व्यक्तियों के बीच में ही होता है। ऐसे लोग दुर्व्यसनी जन का साथ करते हैं। मधुप (भ्रमर) कमल के अन्दर ही प्रतिदिन रमण करते रहते हैं। विद्वानास्तां तदावासे, वासोऽपि विबुधत्वकृत्।। द्विजागारे मुखे प्राप्ता, यद्रसज्ञा रसाप्यभूत्।। 454|| विद्वान् पुरुष अपने स्थान पर ही रहे तो उसका गृहवास भी वैदुष्य को बढ़ाने वाला होता है। दाँत के मुख मे होने पर ही उसकी रसज्ञता परिलक्षित होती हैं। प्रायः प्रवर्धते प्रीतिः, सखे ! सदृशसंपदाम् । किं राज्ञा सह सौहार्द, बव्हासीन्न रसेशितुः ? ||455 ।। है मित्र! समान सम्पदा वाले व्यक्तियों मे प्रायः परस्पर प्रीति की अभिवृद्धि होती है। क्या राजा का राजाओं के साथ अथवा समुद्र की रस पक्ष पाती चन्द्रमा के साथ प्रीति नहीं है ? अर्थात् इनमे परस्पर अति प्रीति है। (क्योंकि चन्द्रमा के बढ़ने के साथ समुद्र मे ज्वर आता है।) ईशानां गुणनाशेऽपि, गुणख्यातिरनश्वरी। यमध्वंस्यप विख्यातो, महादेवो महाव्रती।। 456 || सर्व समर्थ व्यक्तियों के गुणों के नष्ट हो जाने पर भी उनकी कीर्ति अक्षुण्ण रहती है। यमराज अथवा कामदेव के नष्ट हो जाने पर भी महाव्रतधारी महादेव (श्री शंकर जी) जगत् प्रसिद्ध हैं। साक्षरैः सममारब्ध,-मत्सराः स्युनिरक्षराः। वाग्देव्यां वहते वैरं, न कि गोविन्दगेहिनी? ||457 ।। अज्ञानी व्यक्ति ज्ञानी अथवा पढ़े लिखे के साथ काम करते समय मत्सर (इर्ष्या) युक्त बन जाते हैं। क्या श्रीकृष्ण की पत्नी राधिका 65804 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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