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सूक्तरत्नावली / 71
अक्षरों की महिमा को हम कहने के लिए समर्थ नहीं है। गाली देने पर झगड़ा होता है और आर्शीवाद देने पर मित्रता होती है।
का भवेदुन्नतिः पुंसां, स्वगुणस्तवने स्वयम् ?। रसस्य संभवः क्वापि, किं निजाधरचर्वणे? ||27211
स्वयं के गुणों की प्रशंसा स्वयं ही करे उन पुरुषों की क्या उन्नति । क्या कभी भी अपना होंठ चबाने से रस का स्वाद सम्भव होता है ? क्रियन्ते स्वमयाः सदभि,-मंदवश्च न हीतरे। धीयते स्वगुणः पुष्प,-स्तिलेषु नो पलेषु च।। 273 ।।
सज्जन व्यक्तियों से ही मधुरता उत्पन्न होती है अन्य से नहीं। तिल के पौधे में पुष्पों द्वारा ही गुण ग्रहण किये जाते हैं वह गुण तिल एवं पुष्प में नहीं होते हैं।
तुच्छत्वेऽपि मृदुत्वं स्यात्, परर्द्धिग्रहणक्षमम् । पुष्पगन्धस्तिलैरेवा,-दीयते न दृषत्कणैः ।। 27411
मृदुता तुच्छ होने पर भी पर ऋद्धि ग्रहण करने के योग्य होती है। तिल के पौधे में कोमल पुष्प ही सुगंध देता है पत्थर के कण के समान तिल नहीं। लघीयानपि शिष्टात्मो,-पकाराय महीयसाम् । अब्धेरपामपाराणां, किं वृद्धयै नोदितः शशी? ||275।। __ शिष्टात्मा छोटा होते हुए भी अपने से बड़े व्यक्तियों के उपकार के लिए होता है। उदित हुआ चन्द्रमाँ क्या समुद्र की वृद्धि के लिए नहीं होता है ?
कुपुत्रैः कुलविध्वंसो, जातमात्रैर्विधीयते । मूलादुन्मूलनाय स्यात्, कदल्यां फलसंभवः ।। 276।।
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