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सूक्तरत्नावली / 97 को दुःख होता है। जब वे आनन्द का उपभोग करते हैं तब दुर्जन व्यक्ति छाती पीटते है। चपलात्मन्यपि प्रीताः सन्तो द ग्रागमोहिताः। हित्वाम्रादितरूंस्तस्थौ, जगन्नाथो हि पिष्पले।। 402 ||
नयन रागिमा से सम्मोहित व्यक्ति चंचल प्रकृति के मनुष्यों में स्नेह रखने वाले बन जाते हैं। भगवान् जगन्नाथ ने आम आदि वृक्षों का परित्याग कर अपना निवास पीपल के वृक्षों में बनाया। लघीयानपि समये, महतां मानमर्हति। यद् गृह्यतेऽपि भूपालै, लैंखिनी लिखनक्षणे।। 403 ।।
कभी-कभी समय आने पर छोटी वस्तु भी बड़े लोगों द्वारा सम्माननीय हो जाती है। जैसे राजा द्वारा लिखते समय लेखिनी (कलम) का गृहण किया जाता है।
देशे गुणवदादेशे, गुणी गच्छति गौरवम् । जनेषु वस्त्रयुक्तेषु, यत्पटो मूल्यमर्हति।। 404।।
गुण के समान गुणी व्यक्ति भी उचित स्थान पर ही गौरव को प्राप्त करते है। लोगों के वस्त्र-युक्त होने पर ही वस्त्र मूल्य के योग्य हो जाते हैं। कर्कशानां व्यथा बह्वी, मृदूनां च सुखोदयः। दन्तानां चर्वणाऽशर्म, जिह्वायाश्च रसागमः ।। 405 ।।
प्रायः कर्कश व्यक्तियों को व्यथा होती हैं और नम्र व्यक्तियों को सुख प्राप्त होता हैं। खाने पर दाँतों को कष्ट होता है और जिव्हा को रस मिलता है।
आचारोज्झितमुज्झन्ति, रुचिमन्तमपि स्वकाः। ग्रहमा परासक्तो, मुमुचे निचयै रुचाम्।। 406 ।।
काठमmaraSE588
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