Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 100
________________ 98 / सूक्तरत्नावली - आचरण विहीन रुचिकर व्यक्ति का परित्याग उसके स्वजन ही कर देते हैं। अन्य ग्रहों (नक्षत्रों) में आसक्त ग्रहस्वामी (सूर्य) अपनी किरण समूहों द्वारा छोड़ दिया जाता है। इस सुभाषित में आचरण की महिमा का सुंदर एवं पालनीय वर्णन ग्रंथकार द्वारा किया गया हैं। स्वगुणं तनुते विष्वक, कलावानेव वीक्षितः। शुक्लः पक्षो ह्यदृष्टेन, शुक्लप्रतिपदिन्दुना।। 407 ।। कलावान् व्यक्ति ही अपने गुणों को चारों ओर फैलाते हैं। शुक्ल पक्ष की एकम से चन्द्रमाँ अपनी कलाएँ फैलाता है। कलाविलासिनो नैव, भवन्त्यसरलाः खलु । भजते वक्रभावं किं, क्वचित् कुमुदिनीपतिः? 11408|| कलावान् व्यक्ति ही सरल होते है अन्य दुर्जन व्यक्ति नहीं। क्या कभी-भी चन्द्रमाँ वक्रता का सेवन करता है ? गतिर्भवति पापस्य, विपरीता जगज्जनात् । किं स्वर्भानुर्भमन् दृष्टो, न संहारेण सर्वदा? ||409 ।। पापी व्यक्ति की चाल जगत् के लोगों से विपरीत ही होती हैं। क्या राहु हमेशा संहार के लिए भ्रमण करता हुआ नहीं दिखाई देता स्नेहोऽप्यशर्मणां हेतुः, कृतः सन्तापकारिणि । अपि सर्पिः प्रदत्तं स्या,-दनाय ज्वरातुरे।। 410।। सन्तापी व्यक्तियों को स्नेह देने पर भी वह सन्ताप का ही कारण होता हैं। ज्वर से पीड़ित व्यक्तियों को दिया गया हुआ घी क्या अनर्थ के लिए नहीं होता है ? सुखलक्ष्मीजुषामेव, विनये वपुरुत्सुकम् । शाखा फलवतामेव, शीलानां नतिशालिनी।। 411।। 50saason000000000000000000ccesssams000000000BROSHOURSOSORB00000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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