Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 103
________________ सूक्तरत्नावली / 101 महान् व्यक्ति के लिए दी हुई तुच्छ वस्तु भी रम्य हो जाती है। समुद्र द्वारा दिया गया खारा जल भी मेघों के लिए श्रेष्ठ बन जाता है। या प्रवृत्तिवेदाद्या, प्रसिद्धिं समुपैति सा। कृष्णः कृष्णेतरः पक्षो, मुखे तमसि तेजसि।। 422 || प्रारंभ मे जिसकी जैसी समृद्धि होती हैं उसकी चारों ओर वैसी ही प्रसिद्धि होती है। कृष्ण पक्ष मे अंधकार फैलता है और शुक्ल पक्ष मे प्रकाश फैलता है। महोऽन्यत्र स्थित सिद्ध्यै, मृतस्याऽपि महस्विनः। नास्तस्याऽपिरवेर्भासः, किमालोकायदीपकाः? ||423 ।। प्रकाशवान् व्यक्तियों के विनष्ट हो जाने पर अन्य व्यक्ति अपना प्रकाश फैलाने में सफल होते है। सूर्य के अस्त हो जाने पर क्या दीपक का प्रकाश देखने के लिए नहीं होती है ? जीवै: प्रायेण जीवद्भि,-विपत्तिरभिभूयते । क्षीणभावो निराकारि, न किं कुमुदबन्धुना?|| 424 ।। प्रायः शक्तिशाली एवं जीवित व्यक्तियों द्वारा ही विपत्ति का शमन किया जाता है। क्या चन्द्रमाँ द्वारा अपना क्षीण भाव हटाया नही जाता है ? अर्थात् वह स्वयं काल क्षय को हटा देता है। गुणाय समये क्रूर,-संगोऽपि विशदात्मनाम् । दोषे स्याद् घोषपात्राणां, निहितः किं हुताशनः? ||425|| विशदआत्मा को गुण प्राप्ति के अवसर पर क्रूर व्यक्ति का भी संग करना पड़ता है। काँसे मे दोष होने पर उसके निवारण के लिए क्या उसे अग्नि मे नहीं डाला जाता है ? रागवन्तो बहिस्तुच्छा, भवन्त्यन्तश्च नीरसाः। अयमर्थः स्फुटं गुंजा,-फलेषु ददृशे न कैः?||426 || 38888888888888888888888888888888888888888888885608708888888888886-5888SSSSSSSSSSBOBOORG86086666660860GSSSBD65566508666003300006303600068 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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