Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 102
________________ 100 / सूक्तरत्नावली 98888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888888 ___ गुणों के समान होने पर भी बड़े लोगो की ख्याति होती है छोटे व्यक्तियों की नहीं। रोहण पर्वत एवं समुद्र दोनों मे रत्न होने पर भी समुद्र ही रत्नाकर नाम से प्रसिद्ध है। अल्पस्याप्यागमे वृद्धिः, सद्भूयोऽप्यपचीयते। निदर्शनमिह स्पष्टं, कूपोदकसरोदके।। 417 ।। आय अल्प होने पर अधिक धन भी एक दिन क्षीण हो जाता है। यह बात कुएँ और तालाब के जल को देखकर स्पष्ट हो जाती है। परेषां विपदं प्रेक्ष्य, गर्वः कः संपदा सखे !। पूर्वारघट्टघट्टयासी,-द्रिक्तान्यासां किमुत्सवः?|1418|| हे सखे! अन्य व्यक्तियों की विपत्तियों को देखकर अपनी सम्पत्ति का गर्व क्यों किया जाय ? रहट के खाली हुए घटिकाओं को देखकर क्या भरे हुए रहट के घटों को आनन्द होता है ? न भवेत् स्वपरव्यक्तिः, कदाचित् क्रूरचेतसाम् । नाग्निः किं वंशजातोऽपि, सवंशारण्यदाहकृत्? ||419।। क्रूर मन वाले व्यक्ति को स्वपर का भेद नहीं होता है। अग्नि बाँस से उत्पन्न होने पर भी क्या अपने ही वंश अर्थात् बाँसों के जंगल को नहीं जला देती है ? सयत्नाः सौवमाहात्म्य,-रक्षणेऽपि महाशयाः। यत्कृता स्वाम्बुरक्षायै, नालिकेरैत्रिधा वृतिः ।। 420 ।। महान् व्यक्ति भी प्रयत्न द्वारा अपने माहात्म्य का रक्षण करते हैं। अपने भीतर के पानी की रक्षा के लिए नारियल द्वारा तीन तरह से आवृत्ति (घेरा, रक्षा) की जाती है। वस्तु दत्तं भवेद्रम्य,-मपि तुच्छं महात्मने। क्षारमप्यम्बु मेघाय, वितीर्ण वरमब्धिना।। 421 || wwB88888888wwwsssBBBBBBBBBBBBBBBBBBBBBBBB8888888888888888-9888888888888888888888888888888058508060666660000086688638 50000000000000ठठा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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