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82 / सूक्तरत्नावली
कृत्वाऽरेरपि विनयं, दुर्दशां गमयेत् सुधीः । यद्वेतसः सरित्पूरं, नम्रीभूयातिवाहयेत्।। 326 ||
बुद्धिमान व्यक्ति अपने शत्रु का सम्मान (विनय) करके भी दुरावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। वेतस (बेंत) नदी के पूर को झुक कर वहन करती है। यज्जातं तद् बभूवैव, का कार्या तत्प्रतिक्रिया ?| ब्रहि भो ! मुण्डिते मूर्ध्नि, किं मुहूर्तावलोकनम्? ||327 || ___जन्म हो जाने पर उसके मुहूर्त के सम्बन्ध में प्रतिक्रिया करने की क्या आवश्यकता? मुण्डन हो जाने पर उसका मुहूर्त देखने का क्या लाभ? सुखं च दुःखमथवा, यद् भूतं मा स्म चिन्तय। लोकोक्तिरपि यद्विप्रै,- तीता वाच्यते तिथिः ।।328 ||
सुख हो अथवा दुख जो बीत चुका है उसका चिन्तन नहीं करना चाहिए। यह लोकोक्ति भी है कि, ब्राह्मण द्वारा अतीत (जो बीत चुकी है) हुई तिथि नहीं कही जाती है। कायेनैव श्रियां हानौ, वल्लभास्तुगमूर्तयः । अपि पुष्पफलाऽभावे, शाखाभिश्चन्दना मुदे ।। 329 ||
उच्च स्वभाव वाले व्यक्तियों की शारीरिक कान्ति की हानि होने पर भी वे सर्वप्रिय होते हैं। फूल एवं फल के अभाव में भी चन्दन का वृक्ष अपनी शाखाओं द्वारा प्रशंसित होता है। लघूनां यत्र तत्राऽपि, निर्वृतिर्महतां न च। शशानां यत्र तत्राऽपि, यच्छाया न च हस्तिनाम्।।330 ।।
छोटे व्यक्ति यहाँ-वहाँ (कहीं पर भी) सन्तोष का अनुभव कर लेते हैं, महान् व्यक्ति नहीं। खरगोश को यहाँ-वहाँ छाया प्राप्त हो
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