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86 / सूक्तरत्नावली
समानत्वेऽपि भोगानां, विशेषः स्वस्वचिद्वयोः । भवेन्मैथुनतस्तृप्ति,-नराणां न च योषिताम्।। 346 ।।
भोगों के समान होने पर भी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार उसके परिणाम होते हैं। मैथुन क्रिया से पुरुषों को शीघ्र तृप्ति होती है, स्त्रियों को नहीं।
गुणदोषसमत्वेऽपि, गुणख्यातिर्महात्मनाम् । रत्नकर्करमातृत्वे, रत्नगर्भा वसुन्धरा।। 347 ।।
गुण और दोष समान होने पर भी महान् व्यक्ति के गुण ख्याति प्राप्त करते हैं। रत्न और कंकर दोनों के होने पर भी पृथ्वी रत्नों के कारण रत्नगर्भा कहलाती हैं। चिह्नवत्त्वे समानेऽपि, लज्जाया बीजमाकृतिः । स्त्रीणां स्त्रीणां न लज्जा, पुंसां पुसां च भूयसी।।348 ।। __ लक्षणों के समान होने पर भी लज्जा का मुख्य कारण आकृति होती है। मनुष्यत्व रूपी लक्षण के समान होने से स्त्रियों को स्त्रियों से एवं पुरुषों को पुरुषों से अधिक लज्जा नहीं होती है। क्योंकि उनकी आकृति भी समान है। धने गतेऽपि दौर्गत्यं, न कदाऽपि कलावताम् । प्रमीतेऽपि भुजंगे किं, वैधव्यं पणसुभ्रुवाम् ? ।। 349 11
धन के जाने पर भी कलावान् को कभी दुख नही होता है। प्रेमी के मर जाने पर क्या वैश्या वैधव्य को प्राप्त करती है ? अर्थात् नहीं। ऐश्वर्यम्र्जदोजो भि,-र्धनैः परिजनन च। एकोऽप्येणेशतां सिंहो, भुड्.क्ते नैणो मृगौघवान्।।350।।
महान् व्यक्ति अपने तेज एवं पुरुषार्थ से ऐश्वर्य प्राप्त करते है, धन एवं सेवकों के कारण नहीं। सिंह अकेला ही मृगाधिपति के पद को
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