Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 90
________________ 88 / सूक्तरत्नावली स्यात्तस्मिन्नेव संबन्धे, पृथग् नामाकृतेर्वशात् । यत्पितुः सोदरः काकः, स्वसा तस्य फईति च । 1356 || संबंध समान होने पर भी आकृति के आधार पर अलग-अलग नाम दिये जाते है । जैसे पिता के भाई को काका और उनकी बहन को भुआ कहते हैं। प्रायः सापदमेवानु - सरन्ति नरमापदः । यत्कलंकिनमेवेन्दुं, क्षीणत्वमनुधावति । 357 || आपत्तिग्रस्त व्यक्ति के पीछे आपत्ति पड़ी ही रहती है। कलंक से युक्त चन्द्रमाँ के पीछे क्षीणत्व दौड़ता है। अप्युत्तुंगा गते सारे, भवन्ति नतिकारिणः । न दृष्टा यौवने याते, नम्रता किमुरोजयोः ? ।। 358 । । समृद्धि के चले जाने पर व्यक्ति झुक जाता है । यौवन के चले जाने पर क्या स्तनो मे नम्रता नहीं दिखाई देती? महतामपि केषांचित् फलं नाडम्बरोचितम् । तुच्छं फलं न किं दृष्टं, सद्विस्तारोद्भटे वटे ? | | 359 । । किसी बड़े कार्यों के फल का आडम्बर उचित नहीं होता है । श्रेष्ठ विस्तार वाले वटवृक्ष पर क्या छोटे-छोटे फल नहीं देखे जाते हैं? स्वल्पसत्त्वैरपि स्त्रीणां पराभूतिर्न सह्यते । पक्षिणोऽपि प्रकुर्वन्ति, स्वकलत्रकृते कलिम् । । 360 || अशक्त व्यक्ति भी स्त्रियों का किसी के द्वारा किया गया अपमान सहन नहीं करता । पक्षी भी अपनी पत्नी के लिए दूसरे पक्षियों से लड़ लेते हैं। द्विजिव्हा दम्भमुज्झन्ति निजस्थाने समागताः । बिले बिलेशयाः प्राप्ताः, किं न मुंचन्ति जिह्मताम् ? |361 ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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