Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 95
________________ PARORE99999999999999999999999 99999999999990989009000RRE सूक्तरत्नावली / 93 फलं दत्तेऽतितुंगोऽपि, तुच्छं तुच्छपरिच्छदः। यद् बुब्बूले फलं फल्गु, गुरावप्यगुरुच्छदे।। 382|| अत्यन्त उन्नत व्यक्ति भी तुच्छ लोगों से घिरा होने पर अनुपयोगी फल ही प्रदान करता है। जैसे बबुल का वृक्ष बड़ा होने पर भी तुच्छ कांटों से घिरे होने के कारण निरर्थक फल प्रदान करता है। लभते हृत्सु सौहार्द, स्थैर्य नैवास्थिरात्मनाम्। पांसूनामुपरि न्यस्तैः, स्थीयते कियदक्षरैः ? || 383।। अस्थिर लोगों के हृदय में मित्रता प्राप्त हो जाने पर भी स्थिर नहीं रहती है। धूल के ऊपर लिखे गये अक्षरों की स्थिति कितनी होती है ? सान्द्रापि न स्थैर्यवती, प्रीतिः पारिप्लवात्मनाम् । अदम्राऽपि किमम्राणां, छाया न क्षणनश्वरी? |384।। इधर-उधर घूमनेवाले व्यक्तियों की प्रीति सुकर होते हुए भी स्थायी नहीं होती है। क्या इधर-उधर घूमने वाले बादलों की छाया क्षणनश्वरी नहीं होती है ? नीचानामप्यवष्टम्भः, सापदां महतां हितः। अपि भग्नाः कार्यसृजो, जतुना संहिता घटाः ।।385 ।। कष्टग्रसित (ग्रासीन) व्यक्तियों का सहारा भी नीच व्यक्तियों का हित करता है। लाख से जोड़ा गया टूटा घड़ा भी कार्य को सफल करता है। उद्धता अलमुद्धत्,-मौद्धत्यं दुरितात्मनाम् । क्षाराणामेव सामर्थ्य, मलनाशाय वाससाम्।। 386 || अंहकारी व्यक्ति के अहंकार का नाश करने का सामर्थ्य अंकारी व्यक्ति मे ही होता है। कपड़े पर लगे मेल के नाश का सामर्थ्य क्षार में ही होता है। FaceBORORSCORRORISORRORRISONSIBIEBERR1880880GNINRBRORSCORRISHORORSCRIBEORGERESTINAU0988888888888SPORNORRHEORIGIONARROHeases Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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