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72 / सूक्तरत्नावली
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कुपुत्र कुल का नाश करने के लिए ही जन्म लेते हैं। क्या कदली (केले) के वृक्ष में उत्पन्न हुए फल उसका मूल से नाश करने के लिए नहीं होते है ?
धने सत्यपि तेजस्वी, नैधते सुहृदं विना। पिधानरूद्धवातः किं, दीपः स्नेहे सुदीप्तिमान्? ||277 ।।
धन होते हुए भी यदि मित्रता के भाव नहीं हो तो तेजस्वी व्यक्ति उस ओर नहीं जाते हैं। क्या ओट से हवा-रुद्द दीपक तेल या घी होने पर भी प्रकाशमान हो सकता है ?
संपतौ च विपतौ च, महान् स्यात् समवैभवः । उदयेऽस्तमने चाऽपि, स्पष्टमूर्तिस्त्विषांपतिः ।।27811
महान् व्यक्ति का वैभव सम्पत्ति और विपत्ति में समान होता है। सूर्य उदय एवं अस्त के समय पर समान ही दिखाई देता है। मूर्खाणामग्रतो वाचां, विलासो वाग्मिनां मुधा। लास्यं वेषसृजां वन्ध्यं, पुरतोऽन्धसभासदाम् ।। 279।।
मूों के आगे पंडित व्यक्तियों की वाणी का विलास व्यर्थ है। अन्धों से भरी सभा के सामने वेष सजकर नाचना व्यर्थ है।
सुखदुःखे समं स्याता, सुहृदां सहवासिनाम् । सहैवोन्नतिपतने, स्तनयोरेकहृत्स्थयोः ।। 28011
सच्चेमित्र की मित्रता सुख और दुख में समान रूप में स्थायी होती है। उन्नत अथवा पतन दोनो अवस्थाओ में स्तन सदैव हृदय पर ही स्थित होते है। संबन्धोऽपि दुराचार,-चंचवः स्युरपण्डिताः । का सुता का स्वसा काऽम्बा, पशूनामविवेकिनाम्? ||281 ।।
संबंध होने पर भी मूर्ख व्यक्ति जानते हुए दुराचार करता है।
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सवालमा
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