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सूक्तरत्नावली / 79
नासन्नेऽपि रतिः पापे; तुंगे दूरेऽपि चादरः। निष्कास्यते गृहादोतु-र्वनाच्चानीयते करी।। 312।।
पापी व्यक्ति के समीप मे होने पर भी उससे राग नहीं होता है। उच्च व्यक्ति के दूर होने पर भी आदर होता है। घर से बिल्ली को बाहर निकाला जाता है। और वन से हाथी को लाया जाता है।
गुणिसंगे कृते नून,-मन्याः पुण्योपलब्धयः। चीरे परिहितेऽन्येषां, शृंगाराणां परिग्रहः ।। 313||
गुणिजनों का संग किये जाने पर वह निश्चित ही अन्य व्यक्तियों की पुण्योपलब्धि के लिए होता है। स्त्रियों द्वारा किया गया सिंदूर का संग अन्य (पुरुष) के हित के लिए होता है।
विनोपायेन वैदग्ध्य, शिक्ष्यते सन्निधौ सताम् । मुधैवामोदलब्धिः स्या,-न किं सौगन्धिकापणे? ||3141।
सज्जन व्यक्तियों के सानिध्य में बिना प्रयत्न के ही निपुणता की शिक्षा प्राप्त होती है। ठीक इसी प्रकार सुगन्धित वस्तुओं की दुकान में बिना प्रयत्न के ही क्या खुशबू (प्रसन्नता) की प्राप्ति नहीं होती है ?
एकोऽपि सुमना दत्ते, यं गुणं तं न पार्थिवाः। एकपुष्पेण सौरभ्यं, यन्न रत्नशतेन तत्।। 315 ।।
एक संत के द्वारा जो गुण प्रदान किये जाते हैं वे अनेक राजाओं से भी प्राप्त नहीं होते है। जो सौरभ एक पुष्प से प्राप्त होती है वह सौ रत्नों द्वारा भी नहीं मिलती है।
जातिसाम्येऽपि सर्वत्र, संपत्तिरतिरिच्यते। तरुत्वेऽप्यन्यवृक्षेभ्य,-श्चम्पको यद्विशिष्यते।। 316।। जाति समान होने पर भी सभी स्थानों पर सम्पत्तिशाली व्यक्तियों
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