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सूक्तरत्नावली / 73 पशुओं को कौन पुत्री, कौन बहन, कौन माता आदि का विवेक नही होता है। प्रातिवेश्मिकदु:ख स्यु,-मृदूनामसमाधयः । जातायां मूर्ध्नि पीडायां, किं दृशोर्न त्विषाम्पतिः? ।।282 ।।
पड़ोसी को दुख होने पर कोमल व्यक्ति को असमाधि हो जाती है। सूर्य को देखने पर क्या सिर में पीड़ा उत्पन्न नहीं होती है?
सेवाप्रहवं भवे द्विश्व, निष्ठुरेऽपि धनाद्भुते । कीटकैः क्लृप्तपीडायां, केतक्यां किमु नादरः? ||283||
निष्ठुर होने पर भी धनवानों की सेवा में सभी झुकते है। कीटों द्वारा केतकी मे पीड़ा उत्पन्न करने पर भी क्या आदर नहीं किया जाता है ?
शुद्धात्मनि गतेऽपि स्यात्, स्थानं तद्भावभावितम्। किं विक्रीतेऽपि कर्पूरे, नास्पदं सौरमान्वितम्? ||284 || __ शुद्धात्मा के चले जाने पर भी उस स्थान की पवित्रता बनी रहती है। क्या कपूर बेच देने पर भी उस स्थान को सुरभित नहीं करता है। नोज्झन्ति तद्गुणाः स्थानं, गतस्याऽपि दुरात्मनः। गन्धस्त्यजति किं पात्रं, निष्काशितेऽपि रामठे? ||285 ।।
दुरात्मा के चले जाने पर भी उस स्थान से दुर्गुणता का प्रभाव नहीं जाता है। क्या हींग को निकालने पर पात्र की गंध चली जाती है ? अर्थात् नहीं जाती है।
अतिप्रेयान् महात्माऽपि, भवेन्नावसरं विना। यत्तक्रोदनवेलायां, शर्करा कर्करायते।। 286 ।।
अवसर के बिना महान् व्यक्ति भी प्रिय नहीं लगता है। क्रोध के अवसर पर शक्कर भी कंकर के समान लगती है।
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