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52 / सूक्तरत्नावली अचेतनोऽपि धन्यात्मा, सेवितः संपदे सखे !। चिन्तामणिः किमश्माऽपि, न सूते श्रियमीप्सिताम्? ||179 ।। ___है मित्र ! अज्ञानी होते हुए भी पुण्यशाली व्यक्ति सुखकारी होता है। क्या चिन्तामणि रत्न पत्थर होते हुए भी इच्छाओं की पूर्ति नहीं करता है ? अर्थात् मनोभिलाषा पूर्ण करता है। अयच्छन्तोऽपि संपत्तिं, प्रीयते विपुलाशयाः । अददानोऽपि विद्युत्वा(दमा),-न मुदे किं कलापिनाम्? 1118011
सम्पत्ति नहीं देने पर भी महान् व्यक्ति प्रिय व्यक्ति होते हैं। पानी नहीं देने पर भी विद्युत् (बिजली) की चमक क्या मयूरों के हर्ष के लिए नहीं होती है ?
वित्तवत्स्वेव जायेत, नृणां प्रीतिर्महत्स्वपि। हर्षः सप्रतिमेष्वेव, चैत्येष्वप्रतिमेष्वपि।।1811।
धनिकों के समान महान् व्यक्तियों में भी लोगों की प्रीति होती है। प्रतिमा युक्तचैत्य के समान ही प्रतिमा रहित चैत्य को देखकर हर्ष होता है।
सदसतोरीक्षितयोः, सौहृदं सति संभवेत् । घृते भवति वाल्लभ्यं, जग्धयोततैलयोः ।।182||
सुंदर असुंदर दिखने पर भी मित्रता संभव है। जैसे घी प्रिय होने पर भी घी और तैल दोनो ही खाये जाते हैं।
सृजन्ति विशदात्मानो, विवेकं वस्त्ववस्तुनोः। मराला एव कुर्वन्ति, निर्णयं क्षीरनीरयोः ।।183 ।।
पंडित आत्मा ही वस्तु अवस्तु का निर्णय कर सकता है। जैसे हंस ही क्षीर नीर का निर्णय कर सकता है।
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