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56 / सूक्तरत्नावली
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उन्नत स्तन आच्छादित (निहत होने पर भी) झुकते नहीं हैं। कर्णे कर्णेजपैर्युक्तः, कोविदोऽपि विकारवान् । यद् गिरीशोऽप्यभूद् भीमो, द्विजिह्वाधिष्ठितश्रवाः ।।199 ।।
झूठी निंदा करने वाले व्यक्तियों के साथ कान को युक्त करने पर चतर व्यक्ति भी विकार वाला हो जाता है। शंकर भयंकर सर्प को कान पर अधिष्ठित करने से भीमशंकर कहलाये।
विनेयास्ताडिता एव, संपद्यन्ते पदं श्रियाम्। सुवर्णमपि जायेत, हतमेव विभूषणम्।। 200 ||
जो शिष्य पीटे जाते है वही कल्याण को प्राप्त करते है। स्वर्ण पीटे जाने पर ही आभूषण का रुप धारण करता है। दोषे दौरैकदृग्दृष्टि,-र्न गुणे प्रगुणे पुनः। खराणां पतनेच्छा स्यात्, पांसौ न च जलेऽमले।।2011।
दुर्जन व्यक्ति की दृष्टि दोष में ही संतोष प्राप्त करती है। गुणी व्यक्तियों के गुणों में नहीं। गधों की इच्छा धूल मे लोटने की ही होती है निर्मल जल मे नहीं।
संप्राप्तसंपदोऽपि स्यु,-र्न सन्तः शीललोपिनः । किं कलाकलितोऽपीन्दु-र्जही जिष्णुपदस्थितिम्? ||202।।
सम्पत्ति से युक्त होने पर भी सज्जन व्यक्ति शील से रहित नहीं होते है। क्या कलाओं से परिपूर्ण चन्द्रमा विष्णु पद (आकाश) को धारण नही करता? अर्थात् आकाश मे पद (स्थान) प्राप्त करता है।
तुल्येऽपि कर्मणि स्थान,-विशेषान्नरि गौरवम् । समाने भारनिर्वाहे, यद्वामे गुरुता गवि।। 203।। कार्यों में समानता होने पर भी स्थान विशेष से मनुष्य मे गौरव
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