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सूक्तरत्नावली / 63
दोषस्तिष्ठतु तद्भाजा,-मभ्यर्णमपि दुःखकृत्। छिद्रयुक्तघटीपार्वे, झल्लरी यन्निहन्यते।।232।।
दोषी व्यक्ति के दोष तो दूर उनका संसर्ग भी कष्टप्रद होता है जैसे छिद्रयुक्त घटी के समीप रहने से झल्लरी मारी जाती है। गुणिनामपि संसर्गो, दुर्मुखाणां गुणाय न। शरे शरासनासक्ते, दृष्टा क्वाऽपि दयालुता? ||233।।
गुणवान व्यक्तियों का संसर्ग होने पर भी कटुभाषी व्यक्तियों को गुणप्राप्ति नहीं होती। बाण का धनुष के साथ संसर्ग होने पर भी क्या उसमें दया भाव कहीं देखा गया है ? यशःशेषोऽपि तेजस्वी, भवेदाय भूयसे । न रूप्यस्वर्णयोः सिद्धिं, सूतः सूते मृतोऽपि किम्? ||234||
तेजस्वी पुरुष के पास केवल यश ही अवशिष्ट रहने पर भी विपुल लाभ के लिए होता है। पारद (मृतप्राय) भस्मावस्था में भी क्या सोने एवं चाँदी की सिद्धि नही कराती है ? प्रदत्तेऽनर्थमत्यर्थ , दुर्मखैः पक्षशालिता । पक्षवानेव यत् पत्त्री, परप्राणाऽपहारकृत् ।। 235 ।।
दुष्ट व्यक्तियों के द्वारा दूसरो के प्रति किया गया पक्षपात अत्यन्त अनर्थकारी होता है। पाँखो से युक्त बाण अन्य लोगों के प्राणों को हरण करता है। तुंगवंशभवा नार्यः, पतिं दौःस्थ्ये त्यजन्ति न। मुमुचे हिमवत्पुत्र्या, नग्नोऽपि किमनङ्गजित्? ||236 ||
उच्चवंश में उत्पन्न हुई नारियां अपने पति का उसके दरिद्र होने पर भी त्याग नहीं करती हैं। हिमालय की पुत्री पार्वती ने क्या काम
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