________________
दुष्क
34 / सूक्तरत्नावली - शस्यते सर्व शास्त्रेभ्यो, रूढिरे व बलीयसी। तद्ड्.कत्वे समानेऽपि, शशीन्दुर्न मृगीति यत् ।। 8911 - सभी शास्त्रों से प्रशंसित रुढ़ि बलवान् होती है किंतु सत्य नहीं। चन्द्रमाँ में हिरणी के समान चिन्ह होने से चन्द्रमाँ हिरणी नहीं बन जाता।
दृशा दुष्टदृशां दृष्टाः, प्रभावन्तोऽपि निष्प्रभाः। बभूवुर्भुजगैदृष्टाः, प्रदीपाः क्षीणदीप्तयः ।। 9011
दुष्ट व्यक्तियों की दृष्टि भी दुष्ट होती है जिससे वह कान्तिवान को भी कान्तिरहित बना देता है। सर्पो की दृष्टि से दीपक प्रकाश रहित हो जाता है। पिहितैव श्रियं धत्ते, पद्धतिः पुण्यकर्मणाम् । दुकूलकलितावेव, कुचौ कान्तौ मृगीदृशाम्।। 91||
पुण्याशाली व्यक्तियों के छिपे हुए सद्गुण कान्तिप्रद (कल्याणकारी) होते हैं। रेशमी वस्त्रों से इँका हुआ हरिणाक्षी स्त्री का यौवन सुन्दर लगता है।
महतामपि लघुता, तस्थुषां मूर्खपर्षदि। मन्दधामगतस्यासी,-नीचत्वं दिविषद्गुरोः।। 92।।
मूखों की सभा में बैठा हुआ महान् व्यक्ति भी लघुता को प्राप्त करता है। जैसे मन्दधाम जाने वाला बृहस्पति नीचत्व को प्राप्त करता
मध्ये मेधाविनां तिष्ठन्, मूोऽपि मानमश्नुते। मन्दोऽप्युच्चैः पदं प्राप, कविकेलिगृहं गतः ।। 93 || बुद्धिमान् व्यक्तियों के बीच बैठे मूर्ख व्यक्ति भी मान को प्राप्त
B98995888560838wwww6000000000000000000wwwwwwwwwwwwww360860900500
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org