Book Title: Suktaratnavali
Author(s): Sensuri, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 49
________________ सूक्तरत्नावली / 47 दुमूखानां गुणप्राप्तिदु:खाय जगतामपि । छिद्राऽन्वेषी परप्राणान्, हन्ति बाणो हि तादृशः।।154।। दुष्ट व्यक्तियों की गुण प्राप्ति भी संसार के लिए दुखदायी होती है। छिद्रों को खोजने वाला बाण वास्तव में दूसरों के प्राणों का नाश कर देता है। अन्तःशिष्टा अपि मुखे, दुष्टा अप्रीतिकारिणः। दुष्टाः किं नाऽहयस्तुण्डे, सविषे निर्विषा हृदि? 11155।। हृदय शिष्ट होने पर भी यदि मुख दुष्ट हो अर्थात् दुष्ट वचन बोलने वाला हो तो वह अप्रीति का कारण होता है। क्या मुख विष सहित होने पर एवं हृदय विष रहित होने पर भी सर्प दुष्ट नहीं होते दोषः स्तोकोऽपि नीचाना, जगदुद्वेगकारणम् । वृश्चिकानां विषं दुष्ट-मपि पुच्छाऽग्रगं विषम्।।156 ।। नीच व्यक्तियों का थोड़ा दोष भी जगत् के उद्वेग का कारण होता है। बिच्छुओं की पूँछ के अग्रभाग में रहा थोड़ा विष भी हानिकारक होता है। सदुक्तिरपि दोषाय, कदाग हजुषां सख !| संनिपातवतां सर्पि,-ष्पानं तवृद्धये न किम्? ||157 ।। __ प्रसन्नता देने वालों (सज्जन व्यक्तियों) की सद्उक्ति भी दुराग्रहियों को दोष के लिए होती है। क्या संनिपात वाले व्यक्ति को घी पिलाने पर उस दोष की वृद्धि नहीं होती है? भवन्ति सुमनःसंगा,-दपि क्षुद्रास्तदन्तिनः । यत्तिला मिलिताः पुष्प,-र्बभूवुस्तन्मया इव।।158 ।। सज्जनों के सम्पर्क वश क्षुद्र व्यक्ति भी उनके समान समादार-पात्र 38888888888888888500 500000000000000000RRORDEMORoss Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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