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सूक्तरत्नावली / 33 ध्रुवं स्यादुपकाराय, मानितः सरलः सखे ! | प्राणानवति किं नैव, गृहीतं वदने तृणम् ? ।। 84 । ।
हे सखे सम्मानित सरल व्यक्ति निश्चित ही उपकार के लिए होते हैं। क्या मुख मे ग्रहण किया हुआ तृण प्राण को नहीं बचाता है ? दुःखीकृत्याऽपि स्वं पापः परेषामपकारकृत् । मृत्वाऽपि मक्षिकाऽन्येषां जायते वान्तिकारिणी । 185 ।।
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दुखी होकर भी पापी स्वयं एवं दूसरो का अपकार करता है। मक्खी मरकर भी अन्य व्यक्तियों को वमन कराने वाली होती है।
दुःखीकृत्याप्यपापः स्वं परेषामुपकारकृत् ।
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झम्पां दत्वा स्वयं वह्नौ, पर्पटः परपुष्टये ।। 86 ।।
दुखी होकर भी सज्जन व्यक्ति स्वयं एवं अन्य का उपकार करता है । जैसे अग्नि में गया पर्पट स्वयं तो कान्तिवान् होता ही है और अन्य के लिए भी पुष्टिकारक होता है ।
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न वासोऽपि श्रिये नीच, -गामिनां सन्निधौ सताम् । यत् पेतुः पादपाः कूल, - ङ्कषाकूलभुवः स्वयम् । 187 ।।
जिस प्रकार पेतु वृक्ष नदी के किनारे रहते हुए भी स्वयं अपनी जड़ों को नष्ट कर लेता है । उसी प्रकार सज्जनों का सान्निध्य प्राप्त करने पर भी दुष्ट व्यक्ति अपना कल्याण नहीं कर सकता । नान्यस्मै स्वं गुणं दत्ते, रागवानपि कर्कशः । अकारि विद्रुमेणाऽन्य, -द्वस्तु किं रक्तिमांकित्तः ? । 188 ।।
रागवान् होने पर भी कर्कष व्यक्ति स्वयं के गुण अन्य को प्रदान नहीं करता। क्या मूंगे द्वारा कोई अन्य वस्तु रक्तिम (लाल आकार वाली) बनाई गई है ? अर्थात् नहीं ।
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