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सूक्तरत्नावली / 35 करते है। कवि की सभा मे गये मूर्ख व्यक्ति भी उच्च पद को प्राप्त करते हैं। दुदै वे ऽनर्थ साय, संगति/ मतामपि । गतः कविसमां भासां, प्रणयी प्राप नीचताम्।। 94|| ___ दुर्भाग्य होने पर बुद्धिमान् व्यक्तियों का संग भी अनर्थों के लिए होता है। जैसे शुक्रस्थान में गया सूर्य नीचता को प्राप्त करता है। न तद्दोषलवोऽपि स्यात्, खलान्तर्वसतां सताम् । तिष्ठन् मूर्धनि सर्पाणां, मणिः किं विषदोषवान्? ||95 ।।
दुष्टों के बीच बसे सज्जन व्यक्तियों मे थोड़ा दोष भी नही आता है। क्या सों के सिर पर स्थित मणि विष दोष वाली हो जाती है ? अर्थात् नहीं।
संगतौ गुणभाजोऽपि, स्तब्धानां न गुणः सखे !। न मुखश्यामता नष्टा, स्तनयोरिहारिणोंः ।।96 ।।
हे सखे ! गुणवान व्यक्ति की संगत में भी अधम व्यक्ति गुणवान नहीं होते हैं। जैसे गले में हार धारण करने पर भी स्तनों के मुख की श्यामलता नष्ट नहीं हुई।
सङ्घटनेन तुच्छोऽपि, बलशाली यथा भवेत्। घनोपद्रववारीणि, तृणानि मिलितानि यत्।। 97 ।।
तुच्छ व्यक्तियों के परस्पर मिलने से वे बलशाली हो जाते है जैसे तृणों के मिलने से बादलों का उपद्रव रुक जाता है अर्थात् तृण की बनी छत से वर्षा के उपद्रव से बचा जा सकता है।
मध्ये रिक्ता हता एव, भवन्ति मधुरस्वराः । मृदंगेषु यथाऽवस्थ,-मर्थमेनं निमालय।। 98।। मृदंग मध्य में रिक्त होता है और उसको मारने पर भी उसमें
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