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20 / सूक्तरत्नावली
कार्य नहीं करते। जैसे अश्व विवशता से ही घी खाता है, वैसे वह स्वयं तो सदैव तृण ही खाता है। वासरास्ते तु निःसाराः, ये यान्ति सुकृतं विना। विनाङ्कबिन्दवः किं स्युः, संख्यासौभाग्यशालिनः ?।। 20।।
सुकृत कार्य के बिना जो दिन व्यतीत होते हैं वे निस्सार (व्यर्थ) हैं। जैसे अंक कै बिना बिंदुओं का क्या मूल्य है, संख्या ही उनका सौभाग्य है। भवन्ति संगताः सदभिः, कर्कशा अप्यकर्कशाः । किं चन्द्रकान्तश्चन्द्रांशु, संश्लिष्टो न जलं जहौ ?|| 21||
सज्जन व्यक्तियों की संगति से क्रूर व्यक्ति भी कोमल हो जाता है क्या चन्द्रकान्त मणि चंद्र की किरणों से मिलकर पानी नहीं छोड़ती? अर्थात् छोड़ती है।
स्वोऽपि संजायते दौःस्थ्ये, पराभूतेर्निबन्धनम्। यत्प्रदीपप्रणाशाय, सहायोऽपि समीरणः ।। 22 ||
दरिद्रता एवं असफलता की अवस्था में व्यक्ति के स्वजन भी उसको दुःख पहुँचाने वाले होते है। जैसे सहायता देने वाली हवा दीपक के कमजोर हो जाने पर उसके नाश का कारण बनती है।
दोषोऽपि गुणसंपत्ति,-मश्नुते वस्तुसंगतः। यन्निन्द्यमपि काठिन्यं, कुचयोरजनि श्रिये।। 23 ।।
परिस्थिति के प्रभाव से दोष भी गुण रूप में परिणित हो जाते हैं। जैसे कठोरता निन्दनीय होने पर भी कभी-कभी श्रेयस्कर मानी जाती है - जैसे नारी के संदर्भ मे स्तनों की कठोरता अच्छी मानी जाती है।
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